शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2021

कष्टों से निवारण

श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी के समय कुछ मठ वासी विभिन्न तीर्थ स्थानों पर वास करने की इच्छा से जाने लगे। उनके मन में था कि, हरिनाम ही तो करना है, तो क्यों न किसी धाम में करें? मठ में रहले वाले भक्तों की मनःस्थिती को भांपते हुए श्रील प्रभुपाद जी ने एक कीर्तन लिखा - 'वैष्णव के'।

उसमें उन्होंने लिखा-- ये जो राधा जी ने निज-जन के संग को छोड़ कर तुम एकान्त भजन करने जा रहे हो, वो एकान्त भजन मात्र कपटता है। (श्रील प्रभुपाद स्वयं ही श्रीराधा जी के निज-जन हैं)। भजन तो होता है शुद्ध भक्तों के आनुगत्य में। 

अतः हमारी एकमात्र आशा श्रीहरिनाम संकीर्तन से है। तो उच्च स्वर से हरिनाम करो। कीर्तन के प्रभाव से स्मरण होगा भगवान की लीलाओं का, गुरू की महिमा का। 

इससे दुनिया के तमाम असत्संग तुम्हारे पास नहीं आयेंगे, क्योंकि आप परमानन्दमय भगवान का स्मरण कर रहे होओगे। श्रील प्रभुपाद जी या उनके अनुगत जनों के आनुगत्य में रहकर उच्च स्वर से हरिनाम करें, सारे कष्ट कट जायेंगे।



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