तीर्थ यात्रा अच्छे भक्तों के साथ, शुद्ध भक्तों के साथ हो, संकीर्तन के साथ हो, हरि कथा के साथ हो तो बहुत ही अच्छा, नहीं तो तीर्थ यात्रा पुण्य देगी, भक्ति नहीं।
भक्ति तभी होगी जब तीर्थ यात्रा में भगवद् भक्तों का संग होगा।
एक महान वैष्णव आचार्य श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने बताया कि तीर्थ वहीं हैं जहाँ पर साधु-भक्त होते हैं। जहाँ पर साधु रहते हैं वहीं तीर्थ है। अर्थात् जहाँ भी आप साधु-संग कर रहे हैं तो वो तीर्थ स्थान है।
बाहरी दृष्टि से कोई भगवान की लीला स्थली हो और वहाँ पर अगर साधु-भक्त ना जायें तो वो तीर्थ नहीं हैं। तीर्थ को भी तीर्थ करते हैं, भगवद् - भक्त।
जिस तीर्थ यात्रा में वैष्णव संग नहीं होता, ऐसे तीर्थ में जाना ही नहीं चाहिए।
तीर्थ यात्रा में जायें तो हरिकथा के साथ, संकीर्तन के साथ, शुद्ध भक्तों के साथ, तभी तीर्थ यात्रा पूरा-पूरा फल देगी।
जहाँ पर भगवान के भक्त हैं, वही तीर्थ है।
श्रीवृज मण्डल परिक्रमा चल रही थी। सभी भक्त लोग गोवर्धन जी की परिक्रमा कर रहे थे। जहाँ पर जो-जो लीला स्थली आ रही थी, वहाँ पर बैठ कर श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराजा जी से तथा परमपूज्यपाद श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज जी से उन स्थानों का महात्म्य सुना रहे थे।
चलते-चलते एक भक्त ने श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी से पूछा-- महाराज! ये जो दण्डवती परिक्रमा कर रहे हैं, क्या ये करनी चाहिये?
श्रील महाराज - देखो, धाम में रहने से धाम वास तो होता है। उसका फल तो मिलता ही है। गोवर्धन की परिक्रमा का फल भी मिलेगा। किन्तु इतने समय के लिए यदि किसी शुद्ध भक्त से हरिकथा सुनी जाये तो उसका ज्यादा फल है।क्योंकि शुरु-शुरु में तो परिक्रमा का भाव रहता है किन्तु कुछ दिनों बाद शरीरिक श्रम ही बन जाता है। लेकिन जब हम शुद्ध भक्तों से हरिकथा सुनते हैं तो उससे ज्यादा फायदा होता है।
जैसे कोइ हरे कृष्ण महामन्त्र का जप कर रहा है। उसी समय कहीं शुद्ध भक्तों के साथ कोई और नगर संकीर्तन में कीर्तन-नृत्य कर रहा है तो नगर संकीर्तन वाले को ज्यादा फल मिलेगा।
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