श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में बताया कि भगवद् भक्ति बहुत फायदेमंद है।
कहते हैं कि भक्ति की उच्च स्थिती को प्राप्त करके और कुछ चाहने की इच्छा ही नहीं रहती। अन्य सुख छोटे लगने लगते हैं। ध्रुव जी भगवान की तपस्या करने गये इस इच्छा से कि मैं पिताजी से भी बड़ा राज्य प्राप्त करूँगा। हो सकता है कि पिताजी अपना राज्य मेरे भाई उत्तम को दे दें, अतः मुझे उससे बड़ा राज्य का राजा होना चाहिए।
जब भगवान के दर्शन हुए, इतना आनन्द हुआ कि उन्हें राज्य की इच्छा तुच्छ लगने लगी। भगवान के दर्शन उन्हें स्पर्श मणि और राज्य की इच्छा काँच के समान लगने लगी। वे बोले - भगवन् ! मुझे कुछ नहीं चाहिए।
श्रीभगवान -- बेटा वर माँगो! तुम शायद भूल गये कि मुझसे बड़ा राज्य माँगने के लिए तुमने तपस्या की थी।
ध्रुव जी -- हे प्रभो! मुझे सब याद है। किन्तु आपका दर्शन पाकर मैं कृतार्थ हो गया हूँ। मुझे कुछ नहीं चाहिए।
ये ऐसा राज्य है जहाँ जो भक्ति कि उच्च स्थिति में आ जाता है, उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। ऐसा श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी ने अपनी टीका में लिखा। जब वो कुछ कार्य करने का संकल्प लेता है तो गुरू-वैष्णव-भगवान उसके पीछे खड़े हो जाते हैं। जहाँ पर गुरू-वैष्णव-भगवान आ जायें, वहाँ पर तो असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रील ठाकुर ने बोध कथा बताई कि एक छोटी सी चिड़िया थी। उसने समुद्र के किनारे अण्डे दिये। अब समुद्र में लहरें तो आती ही रहती हैं। लहरें आईं और अण्डों को बहा कर ले गईं। चिड़िया जब चुग कर वापिस आई तो उसने देखा अण्डे नहीं है। उसने वहाँ पर अन्य चिड़ियों से बात-चीत कर जानना चाहा कि उसके अण्डे कहाँ चले गए?
उन्होंने कहा कि यह स्थान क्या अण्डे देने का है? समुद्र की लहर आई होगी, अण्डों को ले गई होगी।
चिड़िया -- समुद्र मेरे अण्डे क्यों लेगा? मैंने तो उसे कभी परेशान नहीं किया? वो मुझे क्यों परेशान करेगा?
वो समुद्र के किनारे गई, अपनी भाषा में अपने अण्डे माँगती रही।
समुद्र को क्या फर्क पड़ना था।
चिड़िया को गुस्सा आ गया और उसने कहा कि मैं इतनी देर से दुहार लगा रही हूँ, अब मैं तुम्हें सुखा दूँगी।
चिड़िया चोंच में पानी लेती है, रेत में डाल देती कि समुद्र सुखा दूँगी। सौभाग्य से नारद जी वहाँ आ गये। उन्होंने चिड़िया को ऐसा करते देख उससे बातचीत की। (नारद जी सारी भाषायें जानते हैं)
नारद जी -- अरे इसको कहाँ सुखा पाओगी?
चिड़िया -- देखो महाराज! आप मेरी कुछ सहायता कर सकते हैं तो करो, किन्तु मेरा समय खराब नहीं करो।
चिड़िया पानी लेती है और रेत में डाल देती है।
नारद जी को उसकी दृड़ता व संकल्प पर दया आ गई। सीधा गरुड़ जी के पास जा पहुँचे। उन्हें सारी बात बताई और कहा कि उसकी सहायता करो।
गरुड़ जी तुरन्त आ गये। आते ही समुद्र पर ज़ोर से हाथ मारा।
साधारणतयः देखा जाता है कि व्यक्ति सामने वाले की ताकत से ही डरता है। समुद्र उसी वक्त प्रकट हो गया, जब उसने सुना कि गरुड़ जी कह रहे हैं - अरे समुद्र, इस चिड़िया के अण्डे वापिस कर नहीं तो मैं अपने पंखों से तुझे सुखा दूँगा।
समुद्र ने तुरन्त अण्डे लौटा दिये।
हालांकि चिड़िया के बस की बात नहीं थी किन्तु जब उसे नारद जी जैसे वैष्णव का साथ जब मिला तो गरुड़ जी खड़े हो गये, और चिड़िया का काम बन गया।
अर्थात् जब कोई भक्त कोई संकल्प ले लेता है तो गुरू-वैष्णव-भगवान उसके असंभव लगने वाला कार्य भी सम्भव कर देते हैं।
अतः भगवद् भक्ति से किसी का घाटा नहीं होता।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि भगवद् भक्त के पास दुःख फटकता ही नहीं और कभी आ भी जाए तो उसे एहसास ही नहीं होता क्योंकि वो सदा ही आनन्द में रहता है। इतना तृप्त रहता है कि उसे कोई इच्छा ही नहीं होती।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें