शुक्रवार, 8 मई 2020

में कैसे भी अपने पापों से मुक्त होना चाहती हूँ , उपाय बताएंगे ?

प्रश्न :--  में  कैसे भी अपने पापों से मुक्त होना चाहती हूँ , उपाय बताएंगे  ?

उत्तर : --

आपके सवाल का जवाब तो भगवान् श्रीकृष्ण जी ने दिया है , गीता जी में ।

भगवान् श्रीकृष्ण जी कहते हैं---- मैं सारे जगत का पिता, माता, बन्धु.....सब कुछ  हूँ । मेरे शरणागत होने से, मेरे पास आने से  मैं अपने बच्चों की सारी गल्तियां माफ कर देता हूँ ।

सोचता हूँ कि चलो देर आये,  दुरस्त आये ।

भटक भटक कर, अब मेरा बच्चा मेरे पास आ गया ।

इस बात को गीता जी में अर्जुन से श्री कृष्ण जी ने ऐसे  कहा  ---

..............., ......मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
                                      गीता -- 18/66।।  

श्रीकृष्ण ने  अर्जुन से कहा --- आप  मेरी  शरण ग्रहण आ जाओ , मैं  तुमको सभी पापों से मुक्त कर दूंगा ।

यहाँ पर  विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। वह यह कि उनकी शरण में कैसे जाया जाता है ?

भगवान की शरण ग्रहण करने को कहते हैं - शरणागति।

एक महान वैष्णव आचार्य श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी बताते हैं कि शरणागति ही समस्त प्रकार की समस्याओं का एकमात्र हल है।

जैसे ही हम भगवान के प्रति इस शरणागति को बिना किसी शर्त के अपनाते हैं, हमारे सभी कष्ट, परेशानियाँ हम से दूर भागने लगती हैं। एक शरणागत मनुष्य की अपनी कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं होती, उसकी इच्छा वही होती है, जो भगवान की इच्छा होती है। भगवान उसे जिस स्थिति में रखते हैं, शरणागत मनुष्य उसी में ही प्रसन्न रहता है।

एक प्रसिद्ध दोहा है --
जाहि विधि राखे राम, ताहे विधि रहिए। सीता-राम, सीता-राम सीता-राम कहिए।।

भगवान के शरणागत होने के लिए मनुष्य को यह निम्नलिखित क्रियायें करनी होती हैं --

1) भगवान की प्रसन्नता  के जो अनुकूल है, उसे करते रहना ।

2) भगवान की खुशी के जो प्रतिकूल है, उसे अ-स्वीकार करना मतलब छोड़ते रहना ।

3) भगवान श्रीकृष्ण  हरेक परिस्थिति में मेरी रक्षा करेंगे,  बाहरी शत्रुओं से भी और मन के भीतर के शत्रुओं से भी  -- इस बात पर दृढ़  विश्वास करना।

4) भगवान ही मेरे पालनकर्ता हैं-- इस बात को मानना। 

5) आत्मनिवेदन --- अपना जो कुछ भी है वह, और अपने आप को उन्हें समर्पित करना। 

6) दीनता -- दुनिया का कोई भी घमंड न रखना, अपने को घास के छोटे से टुकड़े से भी दीन-हीन मानना...... मतलब.... अपने आप को भगवान् के सेवकों के सेवकों का तुच्छ सा सेवक मानना।

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