बुधवार, 1 अप्रैल 2020

दर्शन-शास्त्र का दूसरा नाम Philosophy नहीं है।

फिलासाफी शब्द में साफी का अर्थ होता है ज्ञान व फिलो का अर्थ होता है पसन्द। यह शब्द ग्रीक भाषा से आया है। आक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार 'use of reasoning and argument in search of truth and in search of getting knowledge of reality.'

किन्तु भारतीय सन्त इसकी एक अन्य ढंग से व्याख्या करते हैं। हालांकि भारत में भगवान को माननेअ वाले भी हैं और न मानने वाले भी किन्तु दोनों ही पक्ष इसे दर्शन शास्त्र कहते हैं। वे इसे फिलासाफी नहीं कहते है। क्योंकि फिलासाफी व दर्शन शास्त्र का अर्थ एक ही नहीं है। जैसे धर्म व religion का एक ही अर्थ नहीं होता। चूंकि अंग्रेज़ी भाषा में सही शब्द नहीं है, अतः religion शब्द का उपयोग कर लेते हैं।

अब मैं यह बताना चाहूँगा कि दर्शन शास्त्र किसे कहते हैं?
जैसे सत्य वस्तु वह होती है जो हमेशा रहती है। वास्तविक सत्य को विचार से नहीं जाना जा सकता। मानव की अपनी एक सीमा है। उसमें अनेक कमियाँ हैं। हृदय में दुर्बलता है, सीमित ज्ञान है, सीमित बुद्धि है, इत्यादि।

बुद्धि से विचार कर बनाई गयी वस्तु, पूर्ण वास्तविकता नहीं हो सकती। पूर्ण भगवान को एक व्यक्ति जिसकी इन्द्रियों की सीमा है, नहीं जान सकता। भगवान नित्य हैं। वे किसी के मन की उपज नहीं हैं। भगवान ने श्रीगीता में कहा है कि मन तो अपरा शक्ति है, परा नहीं। परा प्रकृति ही श्रेष्ठ शक्ति है। अपरा शक्ति श्रेष्ठ शक्ति नहीं है। भौतिक तत्व -- पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, अग्नि, मन, बुद्धि, अहंकार, सभी अपरा अर्थात् भौतिक शक्ति की उपज हैं। इसी के चलते हमारा मन भौतिक है। हम आध्यात्मिक वस्तु का जड़ (भौतिक) मन से आकर्षण नहीं कर सकते।

उन भगवान को जानने के सही तरीके कि खोज करनी होगी। अगर हम वाद-विवाद से खोजेंगे तो हमारे हाथ कुछ नहीं आयेगा। इसीलिए संत लोग इसे दर्शन-शास्त्र कहते हैं। इसका अर्थ है, भगवान हैं, हमें उन्हें खोजना होगा। भगवान नित्य हैं व उनकी अपनी कृपा से हम उन्हें पा सकते हैं। बिना कृपा के हम उन्हें नहीं पा सकते।

उदाहरण के लिये, अगर कोई व्यक्ति रात्रि में सूर्य को देखना चाहे तो क्या होगा? क्या वह टार्च से अथवा पूरे शहर की बिजली से सूर्य को देख पायेगा। सारे शहर के प्रकाश को देख कर आपको सूर्य के प्रकाश का भ्रम हो सकता है, किन्तु वह प्रकाश सूर्य नहीं है। हमें स्वयं सूर्य के निकलने का ईंतज़ार करना होगा। जब सूर्य प्रकाशित होगा तो उसके अपने प्रकाश से आप उसे देख पायेंगे। सूर्य स्वयं प्रकाशित होता तो दिखेगा, अन्य किसी उपय से नहीं।
और सूर्य के प्रकाश से आप औरों को भी देख पायेंगे।

इसी प्रकार भगवान व उनका दिव्य ज्ञान स्वयं प्रकाशित है। जब वे प्रकट होंगे तभी आप उनको, अपने को व अन्यों को वास्तविक स्वरूप में देख पायेंगे।
इस सृष्टि के प्रथम प्राणी श्रीब्रह्मा को भी यह जानने के लिए कि वे कौन हैं व वे कहाँ से आये हैं, इत्यादि के लिये तप करना पड़ा था।

बिना भगवान की कृपा के हमें सही अर्थ समझ नहीं आ सकता। इसी को दर्शन शास्त्र कहते हैं।
इस कलियुग में भगवान को जानने का सबसे सरल साधन है - श्रीहरिनाम संकीर्तन। 

भगवान व उनका नाम अभिन्न है। भगवान ने अपने नाम में समस्त शक्तियों का संचार कर दिया है। आवश्यकता है निष्कपट भाव से, विश्वास से भगवान का नाम लेने की। हम भगवान का कोई भी नाम, कभी भी जप सकते हैं। कलियुग में ध्यान, अर्चन, यज्ञ सरल नहीं हैं। इसीलिए भगवान ने कलियुग के प्राणियों के लिये इस विधि को दिया है।

यही दर्शन-शास्त्र है।


---- श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी के लेखों से।

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