मंगलवार, 14 जनवरी 2020

दीनता और आत्म निवेदन

जो भी भक्त भगवान की भक्ति करना चाहते हैं, उन्हें यह जानना ज़रूरी है कि भगवान के प्रति शरणागति के बिना भक्ति की गाड़ी नहीं चलती।

जैसे भवन के लिए नींव, जीवन के लिए प्राण ज़रूरी हैं, उसी प्रकार भक्ति लिए शरणागति ज़रूरी है।   

भगवान की भक्ति करने के लिए भगवान के अनुकूल होना जरूरी है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने लिखा कि शरणागति का पहला लक्षण  है दैन्य अर्थात् दीनता।  

दीनता का मतलब होता है कि किसी भी प्रकार के घमण्ड का ना होना। वैसे भी अगर हम सोचें तो हम किस वस्तु का घमण्ड कर सकते हैं, क्योंकि जो आज है, वो कल हो न हो। जो भी मेरे पास है उसे मैं बहुत कोशिश करके भी अपने पास हो सकता है कि न रख सकूँ। जैसे कोई व्यक्ति सुन्दरता का घमण्ड कर सकता है, कोई अधिक धन होने का घमण्ड कर सकता है तो कोई अधिक बल होने का। किन्तु ये सब वस्तुएँ बहुत ज्यादा देर तक नहीं टिकती। तो फिर घमण्ड किसका? वैसे आध्यात्मिक भाषा में दीनता का अर्थ होता है कि मैं इस दुनिया का नही हूँ। मैं तो श्रीकृष्ण के दासों के दासों का दास हूँ।

शरणागति का दूसरा अंग होता है -- आत्म निवेदन। मैं और मेरा अर्थात्  जीवात्मा, मेरा शरीर, मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरा मन, बुद्धि इन्द्रियाँ, घर, परिवार, पैसा, सब कुछ भगवान का ही है -- ऐसे भावना को ही आत्मनिवेदन कहते हैं। वैसे भी ये सब भगवान का ही है। जिस ज़मीन को आज मैं अपना समझ रहा हूँ, उसे पहले कोई अपना समझता था, और उससे पहले कोई अन्य उस अपना समझता रहा। बस कुछ समय इंतज़ार करें, मेरे बाद कोई और उसे अपना समझेगा और उसके बाद कोई अन्य उस ज़मीन को अपना समझेगा। आप कह सकते हैं कि कोई कैसे इसे अपना बना लेगा, इसकी तो मेरे नाम पर राज़िस्ट्री है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि एक समय आयेगा जब हम यहाँ से कूच करने कि तैयारी करेंगे और सब यहीं छूट जाएगा। अतः ये राजिस्ट्री नहीं, मिथ्या अभिमान है, मेरा। तो यह सोच कि मैं और मेरा सभी कुछ भगवान का ही है, इसे ही आत्म निवेदन कहते हैं। सोच होगी तो क्रिया भी होगी। 

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