रविवार, 21 अक्तूबर 2018

श्रीचैतन्य चरितामृत की कहानी

भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की अन्तिम लीला का श्रवण करने के लिये अत्यधिक व्याकुल उनके भक्तों ने श्रील कविराज गोस्वामी जी से उन तमाम लीलाओं का वर्णन करने के लिये विशेष रूप से अनुरोध किया। 

शुद्ध भक्तों के अनुरोध करने पर श्रील कविराज गोस्वामी जी ने भक्तों की इच्छा को पूर्ण करने के लिये स्वयं भगवान श्रीमदनगोपाल जी से आज्ञा ली। प्रभु के चरणों में कविराज गोस्वामी जी द्वारा आज्ञा मांगते ही सब वैष्णवों ने देखा कि सभी के सामने भगवान श्रीमदनगोपाल जी के गले से माला गिर पड़ी। 

भगवान के गले से माला गिरते ही सभी वैष्णव एक साथ हरि-ध्वनि कर उठे तथा मंदिर के श्रीगोसांई दास पुजारी ने वही माला लाकर श्रील कविराज गोस्वामी पाद जी के गले में पहना दी।

भगवान की उस आज्ञा माला को पहन कर श्रील कविराज गोस्वामी जी ने परमानन्द से ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ कर दिया, जो श्री चैतन्य चरितामृत कहलाया। 

एक समय श्रीचैतन्य चरितामृत की सर्वोत्तमता का वर्णन करते समय श्रीलभक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपादजी ने कहा - यदि कभी पृथ्वी की ऐसी अवस्था हो जाये कि सब कुछ ध्वंस हो जाये, किन्तु उस समय श्रीमद् भागवत् और श्रीचैतन्य चरितामृत दो ग्रन्थ रह जायें तो मात्र इन दो ग्रन्थों के रहने से मनुष्य अपनी इच्छानुरूप सभी वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।  और यदि कभी ऐसा भी हो जाये कि श्रीमद् भागवत् भी लुप्त हो जाये तब एकमात्र श्रीचैतन्य चरितामृत रहने से भी मनुष्य का कोई नुकसान नहीं होगा। श्रीमद् भागवत् में जो अभिव्यक्त नहीं किया गया है, वह श्रीचैतन्य चरितामृत में अभिव्यक्त हुआ है। श्रीराधा-कृष्ण मिलित तनु श्रीचैतन्य महाप्रभु हैं। वे ही परम तत्त्व हैं।

उनसे अभिन्न है, श्रीचैतन्य चरितामृत्। 


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