गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

लंका की कहानी

एक समय दो गन्धर्वों में विवाद हो गया कि वासुकि (स्वर्ग लोकों का एक शक्तिशाली सर्प) और वायुदेव में से कौन अधिक बलवान है? पहले गन्धर्व ने वासुकि के गुणों का बखान करते हुए कहा कि वासुकि इतने महान हैं कि समुद्र मंथन के दौरान भगवान् विष्णु ने मथनी की रस्सी के लिये स्वयं वासुकि का चुनाव किया था। इतना ही नहीं, जब सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान विष्णु मत्स्य अवतार में प्रकट हुए तो उस समय भी उन्होंने वासुकि की ही सहायता ली। दूसरे गन्धर्व के पास वायुदेव की महिमा में कहने के लिए कुछ अधिक नहीं था।

जब यह समाचार वायुदेव के पास पहुँचा तो अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए उनका अंहकार मचलने लगा। वास्तव में हमारा मन तिल का ताड़ तथा राई का पहाड़ बनाने में दक्ष होता है।

वासुकि ने भी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए उत्साहपूर्वक उस चुनौती को स्वीकार कर लिया, और उन दोनों गन्धर्व चमचे उनके अहंकार के गुब्बारे में हवा भरने लगे। पराजय अथवा नीचा दिखने का भय असुरक्षा को जन्म देता है। इस असुरक्षा से अपनी रक्षा करने के लिए अकसर ऐसे लोग स्वयं को चमचों से घेर लेते हैं।

दोनों के संघर्ष में मेरु पर्वत बलि का बकरा बन गये। वासुकि ने उसके चारों ओर तीन कुण्डली मार लीं और वायु को अपनी शक्ति सिद्ध करने के लिए वासुकि की पकड़ को ढीला करना था। अपने गर्व की रक्षा करने में अंधे हो चुके वे दोनों भूल गये कि ऐसा करने से पहले उन्हें मेरु पर्वत की अनुमति लेनी चाहिए। अपने संघर्ष में पर्वत पर होने वाले अत्याचार का दोनों ने ही विचार नहीं किया।

अहंकार पर आधारित मतभेद का पहला परिणाम होता है कि हम अपने
आसपास के लोगों तथा परिवेश के प्रति असंवेदनशील बन जाते हैं।

मेरु पर्वत की परवाह न करते हुए उन दोनों के बीच टक्कर आरम्भ हो गयी। वायु जितना ज़ोर लगाते, वासुकि पर्वत पर अपनी पकड़ को उतनी मजबूत करा देते। दोनों को पर्वत की कोई चिन्ता नहीं थी। दोनों के बीच युद्ध में मेरु को सबसे अधिक पीड़ा सहन करनी पड़ी। वे दोनों शक्तिशाली थे, परन्तु भूल गये कि शक्ति के साथ-साथ उतरदायित्व भी आता है।

न तो वासुकि और न ही वायु टस से स होने के लिये तैयार थे। परेशान मेरु ब्रह्माजी के पास पहुँचे और अपनी कहानी सुना दी। इन दो महाशक्तियों के टकराव को रोकने के लिए किसी तीसरी शक्ति के हस्ताक्षेप की आवश्यकता थी। विशेष रूप से जब हमारा अहंकार टकराता है तो उस समय हमें सही न्याय के लिए तीसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण की आवश्यकता पड़ती है।

ब्रह्माजी ने दोनों गन्धर्वों को समझाया कि सृष्टि में न तो कोई छोटा है और न कोई बड़ा। प्रत्येक वस्तु एवं व्यक्ति का निर्माण एक विशेष उद्देश्य के लिए किया गया है। उन्होंने उन्हें समझाया कि भगवान द्वारा दी गयी शक्तियों का उद्देश्य परस्पर सहयोग करना है, स्पर्धा नहीं; एक-दूसरे के पूरक बनना है, विरोधी नहीं।

स्वयं निरंकुश शासक बनने के स्थान पर यदि हम मिलजुलकर कार्य करें तो वह न केवल प्रत्येक व्यक्ति के हित में होगा, अपितु हमारी व्यक्तिगत क्षमताओं में निखार लायेगा।

अपनी गलती का एहसास करते हुए वायु देव व वासुकि नाग ने आपसी स्पर्धा रोक दी। जैसे ही वासुकि नाग ने मेरु पर्वत के ऊपर से अपनी पकड़ ढीली की, एक विशाल चट्टान का टुकड़ा टूट कर समुद्र में गिर पड़ा। उस विशालकाय चट्टान की तीन चोटियाँ थीं, इसलिए उसका नाम त्रिकूट पड़ा। विश्वकर्मा ने देवताओं के विहार हेतु रमणीय स्थान बनाने के लिए इसी चट्टान को चुना, और लंका भी इसी पर बसायी गयी।

दो महान शक्तियों के बीच ईर्ष्या और द्वेष के परिणाम से यह चट्टान गिरी थी। कहीं यही कारण तो नहीं था कि लंका का नाम इतिहास में ईर्ष्या और द्वेष के साथ जुड़ गया।?

जिस सूक्ष्म चेतना के साथ हम किसी वस्तु का निर्माण करते हैं, वही चेतना उस वस्तु में समा जाती है।

-- श्री शुभविलास दास, (इस्कान मुम्बई में रहते हैं और कार्पोरेट जगत् में संगोष्ठियों का आयोजन करते हैं) 

(भगवद् दर्शन, जून 2014 अंक से)

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