गुरुवार, 20 जुलाई 2017

जब श्रीचैतन्य महाप्रभुजी षड़भुज हो गये।

भगवान की भक्ति प्राप्त करने में मायावाद विचार बहुत बड़ी रुकावट हैं। भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ने मायावादी श्रीवासुदेव सार्वभौम का उद्धार किया था। एक बार की बात है, श्रीधाम जगन्नाथ पुरी में श्रीसार्वभौम भट्टाचार्यजी ने श्रीमहाप्रभुजी व अन्य भक्तों विचित्र महाप्रसाद खिला कर परितृप्त किया।

श्रीमन् महाप्रभुजी क पिछला परिचय मालूम होने पर श्रीवासुदेव सार्वभौम जी बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि श्रीमन् महाप्रभुजी के नाना श्रीनीलाम्बर चक्रवर्ती जी के साथ श्रीवासुदेव सार्वभौम जी के पिताजी श्रीमहेश विशारदजी की विशेष मित्रता थी।
आयु में श्रीसार्वभौम भट्टाचार्यजी श्रीमहाप्रभुजी की अपेक्षा बहुत बड़े थे। वे स्नेह से भर कर बोले -- आपका 'कृष्णचैतन्य' नाम सर्वोत्त्म है, किन्तु आपने जो भारती सम्प्रदाय से संन्यास लिया है, वह मध्यम सम्प्रदाय है। मैं तुम्हें उत्तम सम्प्रदाय का बना दूँगा।

स्वयं सम्मान की इच्छा न कर दूसरों को मान देने के स्वभाव वाले श्रीमहाप्रभुजी ने श्रीवासुदेव सार्वभौमजी का उपदेश सुनने की इच्छा व्यक्ति की। श्रीवासुदेव सार्वभौमजी ने उन्हें कहा कि तुम्हें अपने परम सुन्दर शरीर, नवीन यौवन व संन्यास धर्म की रक्षा के लिये वेदान्त सुनना होगा। वेदान्त सुनने से आपमें वैराग्य उत्पन्न होगा।

श्रीवासुदेव सार्वभौमजी ने श्रीमहाप्रभुजी को सात दिन वेदान्त सुनाया।
वेदान्त कठिन ग्रन्थ है, वेदान्त का अर्थ समझ में न आने पर दुबारा पूछना पड़ता है -- श्रीवासुदेव सार्वभौम जी ने जब श्रीमहाप्रभुजी से ऐसा कहा तो श्री महाप्रभुजी ने कहा --आपने मुझने सुनने के लिये कहा, समझ में न आने पर पूछने के लिये नहीं कहा। वेदान्त सूत्रों को समझने में मुझे कष्ट नहीं होता क्योंकि वेदान्त सूत्रों का अर्थ सूर्य की तरह स्वतः सिद्ध रूप से प्रकाशित है। किन्तु आपकी व्याख्या मैं समझ नहीं सका। मुझे ऐसा लगा कि जैसे आकाश में बादल सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार आपकी व्याख्या वेदान्त-सूत्रों के स्वतः सिद्ध अर्थों को ढक रही है।
श्रीमहाप्रभुजी की इस प्रकार बात सुनकर श्रीवासुदेव सार्वभौमजी ने इसे अपना अपमान समझा एवं क्षुब्ध हो उठे।

श्रीवासुदेव जी के साथ श्रीमहाप्रभुजी का 'ब्रह्म' शब्द पर विचार-विमर्श हुआ। श्रीमन् महाप्रभुजी ने श्रीवासुदेव सार्वभौमजी की निर्विशेष मत की व्याख्या का खण्डन किया तथा ब्रह्म के सविशेषत्व को स्थापन किया।

'आत्मारामश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।

कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूत गुणो हरिः॥'

श्रीमहाप्रभुजी ने श्रीमद् भागवतम् के इस श्लोक कि व्याख्या सुनने की
इच्छा की तो श्रीवासुदेव सार्वभौमजी ने इस श्लोक की नौ प्रकार से व्याख्या की। श्रीमन् महाप्रभुजी ने उस नौ प्रकार की व्याख्या को स्पर्श न कर अठारह प्रकार की व्याख्या की।

श्रीमन् महाप्रभुजी के अलुकिक पाण्डित्य को देखकर श्रीवासुदेव सार्वभौम जी अत्यन्त विस्मित् और हक्के-बक्के रह गये। अब उन्हें श्रीमहाप्रभुजी का ईश्वरत्व अनुभव होने लगा।  वे अपनी धृष्टता के लिये पश्चाताप करने लगे, और श्रीमहाप्रभुजी के पाद्पद्मों में गिर पड़े।
श्रीमहाप्रभुजी ने तब उन्हें अपन षड़भुज रूप दिखाया (पहले चतुर्भुज, बाद में श्यामवशीधारी द्विभुज रूप)।

षड़भुज मूर्ति का दर्शन करके श्रीवासुदेव सार्वभौमजी ने श्रीमहाप्रभुजी की कृपा से एक सौ श्लोकों से श्रीमहाप्रभुजी की स्तुति की।

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