रविवार, 15 जनवरी 2017

क्या है श्रीकृष्ण और श्रीनारायण में अन्तर?

एक बार भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी दक्षिण भारत के श्रीरंग क्षेत्र में गये। वहाँ पर श्री महाप्रभु जी ने श्रीवैंकट भट्ट जी के घर में रहने का निर्णय लिया। श्रीवैंकट भट्ट, श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी के पिताजी हैं। जब श्रीमहाप्रभु वहाँ पर गये तब श्रीगोपाल भट्ट अभी छोटी आयु के बालक थे।
अन्तर्यामी भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी श्रीवैंकट भट्ट और उनके परिवार के लोगों की सेवा से सन्तुष्ट थे, परन्तु श्रीमहाप्रभु जी ने यह जान लिया था कि श्रीवैंकट भट्ट जी के मन में कुछ अभिमान है। श्रीवैंकट भट्ट 
जी कुछ ऐसा सोचते थे की श्रीनारायण ही सर्वोत्तम आराध्य हैं। श्रीनारायण अवतारी हैं और श्रीकृष्ण, श्रीराम, श्रीनृसिंह, आदि उनके अवतार हैं क्योंकि श्रीनारायण का जन्म नहीं होता। जबकि श्रीकृष्ण व श्रीराम का जन्म होता है। श्रीचैतन्य महाप्रभु तो श्रीनारायण के अवतार श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं, जबकि वे स्वयं अवतारी श्रीनारायण की पूजा करते हैं।

दर्पहारी भगवान मधुसूदन जी सबके अभिमान (दर्प) का नाश कर देते हैं।

एक दिन श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने मज़ाक-मज़ाक में ही श्रीवैंकट भट्ट से कहा, 'देखो भाई वैंकट ! आपके आराध्य श्रीनारायण के समान ऐश्वर्य किसी और का नहीं है। आपकी आराध्य लक्ष्मी देवी तो ऐश्वर्य की देवी हैं। उनके ऐश्वर्य की भी भी कोई तुलना नहीं है।  और इसके विपरीत मेरे आराध्य श्रीकृष्ण का कोई ऐश्वर्य नहीं है, वे तो जंगल के फूलों की माला और मोर का पंख आदि धारण किये रहते हैं । वे नन्द ग्वाले के पुत्र हैं, ग्वाल-बालकों के साथ जंगल में बछड़े चराते हैं। मेरी आराध्य गोपियों का भी कोई ऐश्वर्य नहीं है, वे दरिद्रा हैं, ग्वालिनें हैं। मैं आपसे एक प्रश्न करना चाहता हूँ कि आपकी आराध्य लक्ष्मी देवी ने श्रीकृष्ण के संग की इच्छा से, श्रीकृष्ण की रास लीला में प्रवेश करने के 
लिए वृन्दावन के श्रीवन में तपस्या क्यों की थी?'

श्रीवैंकट भट्ट जी ने साथ-साथ ही बोला, 'इसमें दोष क्या है, जो लक्ष्मीपति नारायण हैं, वे ही राधापति कृष्ण हैं।'

सिद्धान्तस्त्व भेदेऽपि श्रीश-कृष्ण-रूपयो: । 
रसेनोत् कृष्यते कृष्णरूप मेषा रस स्थिति: ॥

(श्रीकृष्ण में अधिक रस होने के कारण ही लक्ष्मी देवी जी ने श्रीकृष्ण का संग प्राप्त करने की लालसा की थी)

श्रीमन्महाप्रभु जी ने कहा, 'मैं दोष की बात नहीं करता। श्रीकृष्ण और श्रीनारायण के तत्त्व में कोई भेद नहीं है। एक ही हैं, बस रस का अन्तर है। माधुर्य लील में जो श्रीकृष्ण हैं, ऐश्वर्य लील में वे ही श्रीनारायण हैं। श्रीकृष्ण की लीला में जो श्रीमती राधिका हैं, वे ही श्रीनारायण की लीला में श्रीमती लक्ष्मी हैं। इसलिये श्रीकृष्ण के संग की इच्छा से तपस्या करने पर भी श्रीलक्ष्मी देवी जी के सतीत्त्व की हानि नहीं हुई थी। फिर भी श्रीकृष्ण के संग की लालसा से उन्होंने वृन्दावन में तपस्या की थी।'

आप से मेरा यह दूसरा प्रश्न है, 'श्रीलक्ष्मी देवी जी ने तपस्या करने पर भी श्रीकृष्ण की रास लीला में प्रवेश का अधिकार क्यों नहीं पाया?'
श्रीवैंकट भट्ट इसका कोई उत्तर न दे पाये और उत्तर न दे सकने पर बहुत दु:खी हुये।

श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीवैंकट भट्ट का दु:ख दूर करने के लिये तसल्ली देते हुए कहा, 'अरे, आपने स्वयं ही तो कहा था कि सिधान्ततः श्रीलक्ष्मीपति नारायण और श्रीराधापति कृष्ण में कोई भेद नहीं है। तब भी श्रीकृष्ण में रसोत्कर्षता अधिक है। श्रीनारायण कें ढाई रसों की अभिव्यक्ति है जबकि नन्दनन्दन श्रीकृष्ण में पाँच मुख्य और सात गौण रस, परिपूर्ण मात्रा में हैं। ऐश्वर्य विग्रह श्रीनारायण के लिये ऐश्वर्यमयी श्रीमती लक्ष्मी जी हैं। वे श्रीमती लक्ष्मी जी ही माधुर्य लीला पुष्टि के लिये श्रीमती राधिका जी हैं। '

'श्रीमती रधिका और गोपियों के आनुगत्य के बिना श्रीकृष्ण के माधुर्य का आस्वादन नहीं हो सकता। लक्ष्मी देवी जी ने गोपियों का अनुगत्य नहीं किया और ऐश्वर्य भाव लेकर तपस्या की, इसलिये बार-बार उन्हें भगवान नारायण का ही संग मिला, श्रीकृष्ण का संग प्राप्त नहीं हो सका। इसके विपरीत श्रुतियों ने गोपियों का आनुगत्य करके, राग-मार्ग से भगवान श्रीकृष्ण की सेवा प्राप्त की थी।'

'श्रीकृष्ण का एक सजीव लक्षण यह है कि वे अपने माधुर्य से सभी जीवों के चित्तों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। व्रजवासियों के भाव के अनुसार श्रीकृष्ण के चरणों की प्राप्ति होती है। कारण, व्रजवासी श्रीकृष्ण को ईश्वर के रूप में नहीं मानते। कोई-कोई उनको पुत्र मानकर ऊखल से बान्धते हैं तो कोई उनको सखा समझकर उनके कन्धों पर चढ़ते हैं। ऐश्वर्य ज्ञान से वे उनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ते। जो व्रजवासियों के भाव के अनुसार उनका भजन करेगा, वह ही व्रज में वास्तविक रूप से व्रजेन्द्रनन्दन को प्राप्त करेगा।'

'रासलीला के दौरान, श्रीकृष्ण के अन्तर्ध्यान होने पर, मेरी आराध्या 
गोपियों ने व्याकुल भाव से श्रीकृष्ण के लिए विलाप किया था, जिस पर श्रीकृष्ण उनके सामने चतुर्भुज नारायण के रूप में प्रकट हुये। गोपियाँ, श्रीनारायण का संग करने की बात तो दूर, वहाँ ठहरी भी नहीं, उनको प्रणाम करके चली गईं। किन्तु श्रीमती राधा-रानी जी के वहाँ उपस्थित होने से श्रीकृष्ण की दो भुजायेँ गायब हो गयीं और वे दो भुजा वाले मुरलीधर के रूप में प्रकट हो गये। उस स्थान को इसी कारण से पौसधाम या पैठधाम बोलते हैं। यह स्थान गोवर्धन के निकट है। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ही अवतारी हैं तथा श्रीनारायण, श्रीराम, श्रीनृसिंह, आदि उनके अवतार हैं।'

'यांर भगवत्ता हइते अन्येर भगवत्ता।
स्वयं भगवान् बलिते तांहातेइ सत्ता॥'

'एते चांश कलाः पुंस कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
इन्द्रारि व्याकुलं लोकं मृड़यन्ति युगे युगे॥' (भा .1/3/28)

(जिनकी भगवत्ता से दूसरों की भगवत्ता होती है, उनको ही स्वयं भगवान् कहते हैं, क्योंकि उनसे ही सबकी सत्ता है।)

श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी की कृपा से, उनके संग के प्रभाव से श्रीवैंकट 
भट्ट, उनके भाई श्रीप्रबोधानन्द सरस्वती जी, श्रीवैंकट भट्ट के पुत्र श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी तथा अन्य परिवार के सदस्य श्रीलक्ष्मीनारायण जी की उपासना छोड़ कर सम्पूर्ण रूप से श्रीराधा-कृष्ण जी की उपासना में लग गये और श्रीराधा-कृष्ण जी के एकान्तिक भक्त हो गये।

श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी जी ने अपने ग्रन्थ ' श्रीगौरपार्षद गौड़ीय वैष्णाचार्यों के संक्षिप्त चरितामृत ' में बताया है की श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी भगवान श्रीकृष्ण की लीला में विलास मंजरी हैं।

श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी जी की जय !!!!!

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