बुधवार, 23 नवंबर 2016

अहं ब्रह्मास्मि

साधारणतया 'अहं ब्रह्मास्मि' का अर्थ लोग 'मैं ही ब्रह्म हूँ', ऐसा लेते हैं परन्तु इसका यह यथार्थ अर्थ नहीं है। क्योंकि ये जीव ब्रह्म नहीं है। ब्रह्म होने से तो सभी प्राणी सर्व-शक्तिमान व अन्तर्यामी आदि अनन्त गुणों से विभूषित होते। जबकि वास्तविकता में संसार का कोई भी प्राणी ब्रह्म की तरह अनन्त गुण सम्पन्न नहीं है। 

शिवोऽहम् का अर्थ भी --'मैं शिव हूँ', ऐसा नहीं है। क्योंकि हरेक प्राणी पार्वती जी का पति नहीं हो सकता। पार्वतीजी तो हम सब जीवों की माता है। 

हमारे वैष्णवाचार्योंं ने  'अहं ब्रह्मास्मि' का अर्थ इस प्रकार से किया है - मैं ब्रह्म का हूँ। 'शिव' का अर्थ 'मंगलमय' होता है। अतः 'शिवोऽहम' का अर्थ होता है --- मैं मंगलमय भगवान का हूँ। श्रीमद् भागवत् महापुराण के अनुसार ब्रह्म व परमात्मा तो 'भगवान' शब्द के पर्यायवाची शब्द हैं।  (भा…1/2/11)

गीताजी के पन्द्रहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्णजी ने जीव को अपना अंश कहा है। अर्थात् जीव भगवान न होकर भगवान श्रीकृष्ण का अंश है। गीताजी के ही सातवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण जी ने स्पष्ट रूप से बताया है कि संसार के तमाम जीव मेरी परा प्रकृति के अंश हैं। अट्ठारहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े प्यार से अर्जुन को समझाते हुये कहा कि सारे जीव उनके नित्य दास हैं। मुझेमें अपने मन को लगाना, मेरा भजन करना तथा हर तरह से मेरी सेवा करना ही इस जीव का परम कर्तव्य है। ये ही तमाम सुखों का सूत्र भी है।

श्रीविष्णुपुराण में कहा गया है कि भगवान की अनन्त शक्तियाँ हैं, जिनमें से तीन शक्तियाँ मुख्य हैं ----

1) अन्तरंगा शक्ति - जिससे भगवान का धाम व भगवान की विभिन्न लीलाओं का संचालन होता है।
2) क्षेत्रज्ञा शक्ति - जिसे तटस्था शक्ति भी कहते हैं। इसी शक्ति के विभिन्न अंश हैं, संसार के सभी जीव।
3) बहिरंगा शक्ति - भगवान जिस शक्ति मके माध्यम से इस संसार की संरचना करते हैं व इसका संचालन करते हैं।

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