
दैत्यों के इस प्रकार के नित्यप्रति के विघ्नों से भयभीत होकर इन्द्र आदि

भगवान विष्णु की कही हुई बात को सुनकर देवतागण ब्रह्माजी की आज्ञा लेकर अगस्त्यजी के आश्रम गये और स्तुति करने के पश्चात् अपनी व्यथा निवेदन की।

महर्षि अगस्त्यजी ने शरणागत-देवताओं की अभय-याचना स्वीकार कर ली और तत्काल देवताओं के साथ समुद्र तट पर जाकर क्रोधावेश में समुद्र-पान कर लिया।
उनके समुद्र-पान करने के बाद देवताओं ने दैत्यों का संहार कर दिया। उसके बाद देवताओं ने पुनः समुद्र को छोड़ देने के लिये महर्षि से प्रार्थना की, लेकिन उन्होंने कहा कि मैंने उस को पी लिया है। काफी समय बाद राजा दिलीप के पुत्र भगीरथजी गंगाजी को धरती पर लाये, उससे पुनः सागर पूर्ववत् हो गया।
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