शनिवार, 3 सितंबर 2016

और अगस्त्य मुनि, सारा समुद्र पी गये।

सत्ययुग की बात है कि दैत्योंं के बहुत से भयंकर दल थे, जो कालकेय नाम से प्रसिद्ध थे। उनका स्वभाव अत्यन्त निर्दयी था। वे सदा रात में कुपित होकर आते और आश्रमों तथा पुण्य-स्थानों में निवास करने वाले मुनियों का संहार करके चले जाते थे। दिन के समय समुद्र के जल में प्रवेश कर जाते थे।

दैत्यों के इस प्रकार के नित्यप्रति के विघ्नों से भयभीत होकर इन्द्र आदि
सभी देवता मिलकर शरणागत-वत्सल भगवान विष्णु की शरण में गये और अभय याचना की। देवताओंं कि प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु बोले - मुझे सब ज्ञात है, वे दैत्य लोग समुद्र के बीच में रहते हैं। अतः आप लोगों को समुद्र सुखाने की कोई युक्ति ढूँढनी होगी। मेरे विचार से महर्षि अगस्त्य ही इस कार्य को करने में समर्थ हैं।

भगवान विष्णु की कही हुई बात को सुनकर देवतागण ब्रह्माजी की आज्ञा लेकर अगस्त्यजी के आश्रम गये और स्तुति करने के पश्चात् अपनी व्यथा निवेदन की।

महर्षि अगस्त्यजी ने शरणागत-देवताओं की अभय-याचना स्वीकार कर ली और तत्काल देवताओं के साथ समुद्र तट पर जाकर क्रोधावेश में समुद्र-पान कर लिया। 

उनके समुद्र-पान करने के बाद देवताओं ने दैत्यों का संहार कर दिया। उसके बाद देवताओं ने पुनः समुद्र को छोड़ देने के लिये महर्षि से प्रार्थना की, लेकिन उन्होंने कहा कि मैंने उस को पी लिया है। काफी समय बाद राजा दिलीप के पुत्र भगीरथजी गंगाजी को धरती पर लाये, उससे पुनः सागर पूर्ववत् हो गया।

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