जीवन में सच बोलना, यह एक तपस्या है।
झूठ बोलना पाप है।
संत कबीर जी ने कहा-
सांच बराबर तप नहीं,
झूठ बराबर पाप ।
-- अर्थात् सच बोलने के समान कोई तपस्या ही नहीं हो सकती। और झूठ बोलने जैसा कोई पाप नहीं है।
हम चाहे अपने आप को कितना भी धार्मिक कहलायें, किन्तु अगर हम
सच बोलने के पलड़े पर अपने आप को रखें, तो हमें अपने-आप ही पता लग जायेगा कि हम कहाँं पर खड़े हैं?
छोटी-छोटी बात पर हम झूठ बोल देते हैं। सब्ज़ी लेने जब जायेंगे तो सब्ज़ी वाले से पूछेंगे कि भई, यह आलू कैसे दिये? बैंगन कैसे हैं?
जी, बैंगन तो चौदह रूपये किलो हैं।
चौदह रूपये? कमाल है। वो सामने वाला तो बारह रुपये का दे रहा है।
सच्चाई तो यह है कि हमने पूछा भी नहीं होता किसी को, ऐसे ही बोल देते हैं। हमें पता होता है कि यह चौदह बोल रहा है, मैं बारह बोल रहा हूँ, तेरह में फैसला हो जायेगा।
एक रुपये के लिये झूठ बोल देते हैं।
ऐसा एक रुपया जो हमारे घर में, सिरहाने के आस-पास, इधर-उधर डिब्बों
में - खानों में, दराजों में पड़ा रहता है, हम उसकी ओर ध्यान भी नहीं देते। और उसी एक रुपये के लिये हम झूठ बोल देते हैं। वो झूठ जिसे, कबीर दास जी सबसे बड़ा पाप कहते हैं।
ऐसा इसलिये क्योंकि जितने भी पाप हैं, वो झूठ के बिना होते ही नहीं हैं। बिना झूठ बोले पाप नहीं हो सकता।
जब हम झूठ बोलते हैं तब हम अपने आप को ऐसा अनुभव करते हैं जैसे हम कोई बहुत महान काम कर रहे हैं। लेकिन वही झूठ जब कोई हमें बोलता है तो हमें बहुत बुरा लगता है। हम यह नहीं सोचते जब मैं झूठ बोल रहा था तब दूसरा मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा?
कई बार ऐसा भी होता है कि सभी घर के सदस्य इकट्ठे बैठकर खाना खा रहे होते हैं, और अचानक दरवाज़े की घण्टी बज जाती है। बच्चे को बोला - काका, देखना तो कौन आया? बच्चा दरवाज़े के छोटे से छेद से देखता है और बोलता है - मम्मी! वो वर्मा आंटि आयीं हैं।
अच्छा! कह दे - मम्मी घर पर नहीं हैं।
यह, हम क्या संस्कार दे रहे हैं, बच्चों को?
हम घर पर बैठे हैं, माँ घर में ही है लेकिन बच्चे से कह रही है - जाकर बोल, मम्मी घर में नहीं है।
या कई बार कोई अन्य आया और हमने कह दिया कि बोल दे, पापा घर पर नहीं हैं, जबकि वे घर में ही बैठे हैं।
अब जब बच्चा हमारे सामने, हमीं से झूठ बोलता है तो गुस्सा आता है।
डाँटते हुये कहते हैं - मम्मी से झूठ बोलता है, पापा से झूठ बोलता है। शर्म नहीं आती।
उस समय हम यह भूल जाते हैं कि बच्चे को झूठ बोलना सिखाया किसने?
जब वो घर की घंटी बजी थी तब हमने उसे क्या संस्कार दिये थे? हमने उसे यही संस्कार दिये थे कि मैं घर में हूँ पर तू बोल आ, कि मम्मी अथवा पापा घर पर नहीं हैं।
बच्चा तो भोला होता है। हो सकता है वो बाहर जाकर यही बोल आया हो - आंटी, मम्मी कह रहीं हैं कि वे घर पर नहीं हैं, अथवा पापा कह रहे हैं कि वे घर पर नहीं हैं।
खैर, हमें अपने परमार्थ में आगे बढ़ने के लिये, अथवा पुण्य कमाने के लिये, हमें संत कबीर दास जी की बात को याद रखना चाहिये --
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
झूठ बोलना पाप है।
संत कबीर जी ने कहा-
सांच बराबर तप नहीं,
झूठ बराबर पाप ।
-- अर्थात् सच बोलने के समान कोई तपस्या ही नहीं हो सकती। और झूठ बोलने जैसा कोई पाप नहीं है।
हम चाहे अपने आप को कितना भी धार्मिक कहलायें, किन्तु अगर हम
सच बोलने के पलड़े पर अपने आप को रखें, तो हमें अपने-आप ही पता लग जायेगा कि हम कहाँं पर खड़े हैं?
छोटी-छोटी बात पर हम झूठ बोल देते हैं। सब्ज़ी लेने जब जायेंगे तो सब्ज़ी वाले से पूछेंगे कि भई, यह आलू कैसे दिये? बैंगन कैसे हैं?
जी, बैंगन तो चौदह रूपये किलो हैं।
चौदह रूपये? कमाल है। वो सामने वाला तो बारह रुपये का दे रहा है।
सच्चाई तो यह है कि हमने पूछा भी नहीं होता किसी को, ऐसे ही बोल देते हैं। हमें पता होता है कि यह चौदह बोल रहा है, मैं बारह बोल रहा हूँ, तेरह में फैसला हो जायेगा।
एक रुपये के लिये झूठ बोल देते हैं।
ऐसा एक रुपया जो हमारे घर में, सिरहाने के आस-पास, इधर-उधर डिब्बों
में - खानों में, दराजों में पड़ा रहता है, हम उसकी ओर ध्यान भी नहीं देते। और उसी एक रुपये के लिये हम झूठ बोल देते हैं। वो झूठ जिसे, कबीर दास जी सबसे बड़ा पाप कहते हैं।
ऐसा इसलिये क्योंकि जितने भी पाप हैं, वो झूठ के बिना होते ही नहीं हैं। बिना झूठ बोले पाप नहीं हो सकता।
जब हम झूठ बोलते हैं तब हम अपने आप को ऐसा अनुभव करते हैं जैसे हम कोई बहुत महान काम कर रहे हैं। लेकिन वही झूठ जब कोई हमें बोलता है तो हमें बहुत बुरा लगता है। हम यह नहीं सोचते जब मैं झूठ बोल रहा था तब दूसरा मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा?
कई बार ऐसा भी होता है कि सभी घर के सदस्य इकट्ठे बैठकर खाना खा रहे होते हैं, और अचानक दरवाज़े की घण्टी बज जाती है। बच्चे को बोला - काका, देखना तो कौन आया? बच्चा दरवाज़े के छोटे से छेद से देखता है और बोलता है - मम्मी! वो वर्मा आंटि आयीं हैं।

यह, हम क्या संस्कार दे रहे हैं, बच्चों को?
हम घर पर बैठे हैं, माँ घर में ही है लेकिन बच्चे से कह रही है - जाकर बोल, मम्मी घर में नहीं है।
या कई बार कोई अन्य आया और हमने कह दिया कि बोल दे, पापा घर पर नहीं हैं, जबकि वे घर में ही बैठे हैं।
अब जब बच्चा हमारे सामने, हमीं से झूठ बोलता है तो गुस्सा आता है।
डाँटते हुये कहते हैं - मम्मी से झूठ बोलता है, पापा से झूठ बोलता है। शर्म नहीं आती।
उस समय हम यह भूल जाते हैं कि बच्चे को झूठ बोलना सिखाया किसने?
जब वो घर की घंटी बजी थी तब हमने उसे क्या संस्कार दिये थे? हमने उसे यही संस्कार दिये थे कि मैं घर में हूँ पर तू बोल आ, कि मम्मी अथवा पापा घर पर नहीं हैं।

खैर, हमें अपने परमार्थ में आगे बढ़ने के लिये, अथवा पुण्य कमाने के लिये, हमें संत कबीर दास जी की बात को याद रखना चाहिये --
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
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