श्रीनरेन्द्र नाथ नाम के एक बालक जब हाईस्कूल में पढ़ते थे तो आप अपने मित्रों के साथ श्रीकृष्ण भगवान का ध्यान किया करते थे। युवावस्था में आप 'प्रह्लाद चरित्र' और 'ध्रुव चरित्र' आदि पढ़कर श्रीकृष्ण प्राप्ति के लिए व्याकुल हो गये थे। एक बार आपने अपने भान्जे तरणीकान्त को साथ लेकर, गृह - त्याग करने का संकल्प भी किया था और रेलगाड़ी में सवार होकर जगन्नाथपुरी की ओर यात्रा की तैयारी भी कर ली थी परन्तु आपके परिवार के लोगों ने पुलिस को खबर करके आप दोनों की यात्रा रुकवा दी। आपने अपनी इस व्याकुलता की अभिव्यक्ति 'Search' नामक पुस्तक में की है।
पटना कालेज में बी. ए. फाइनल परीक्षा क समय नरेन्द्रनाथ के हृदय में सद्-गुरु प्राप्ति के लिए व्याकुलता उमड़ पड़ी । आप टेस्ट परीक्षा के पूर्व ही होस्टल छोड़ कर केवल एक लोटा और एक कम्बल लेकर वाराणसी की ओर चल पड़े। गंगा के अहिल्याबाई घाट में तीन दिन व तीन रात बिना कुछ खाये व बिना सोये गुरु प्राप्ति की आशा लिये बैठे रहे। प्रतिदिन अनेकों साधु-महात्मा गंगाजी में स्नान करने के लिए आते थे। नरेद्रनाथ जी ने इनमें से किसी को भी गुरु रूप में स्वीकार नहीं किया। नरेन्द्रनाथ जी का दृढ़ विश्वास था कि आप अपने परमार्थिक गुरु को दर्शन मात्र से पहचान लेंगे। तीन दिन के बाद आपने वाराणसी स्थित राम-कृष्ण मिशन में जाकर वहाँ के स्वामी जी से पूछा -- 'मिशन में धार्मिक-जीवन यापन करने की क्या व्यवस्था है?' स्वामी जी नरेन्द्रनाथ जी को लेकर वहीं के अस्पताल का निरीक्षण करने लगे।
नरेन्द्रनाथ जी ने पूछा --'यह तो शरीरिक बिमारी ठीक करने के लिए
अस्पताल है? यहाँ धार्मिक जीवन यापन करने की क्या व्यवस्था है? यह मैं आपसे जानना चाहता हूँ।' स्वामी जी ने उत्तर दिया -- ' इन दु:खियों की सेवा करना ही परम धर्म है। यदि तुम इस सेवा में अपने आप को समर्पित करोगे तब ही भगवान की कृपा प्राप्त कर सकोगे।' आपने इस सेवा-व्यवस्था को परमार्थिक जीवन के रूप में स्वीकार नहीं किया। पुन: पटना लौटकर English में Honours से बी. ए. फाइनल परीक्षा दी और अपने घर की ओर रवाना हुए। वहाँ जाकर पता लगा कि आपके पिता जी बहुत बिमार हैं। उनकी चिकित्सा के लिए ढाका शहर में (गेण्डेरिया मुहल्ला में) एक मकान का कुछ अंश किराये में लिया गया है।
आप वहाँ चले गये। उस स्थान पर एक नवीन संन्यासी का नाम सुनकर आप उनसे मिलने गये? नरेन्द्रनाथ ने संन्यासी से पूछा, 'गुरु कहाँ मिलेगा? और गुरु सेवा कैसे होगी?' संयासी ने कुछ समय चुप रहकर कहा-- 'वहाँ लटकाया हुआ कुर्ता मुझे दे दो ।' नरेन्द्रनाथ ने वह कुर्ता उनको दिया। पुन: संन्यासी ने कहा, 'यही है गुरु सेवा।'
नरेन्द्रनाथ को यह बात अच्छी नहीं लगी। प्रश्न का ठीक जवाब देने के बजाय यह संन्यासी स्वयं ही गुरु बनने का प्रयास कर रहा था। आप वहाँ से चल दिये।
वैष्णव-महात्माओं के सम्मेलन की बात सुनकर युवक नरेन्द्रनाथ जी उत्साह के साथ वहाँ पहुँचे। वहाँ पर एक वैष्णव वेषधारी व्यक्ति के गले में तुलसी की माला, मस्तक पर उज्जवल तिलक, हाथ में हरिनाम जप करने की माला आदि देखकर आप उनके बारे में पूछताछ करने लगे। दूसरे दिन प्रातः उनके पास जाकर प्रश्न किया --'कल शाम को करोनेशन पार्क के धर्म-सम्मेलन में मैंने वैष्णव धर्म के बारे में सुना। वहाँ पर आपकी विशेष सक्रियता को देखकर इस विषय में और कुछ जानने के लिये मैं आपके पास आया हूँ । वैष्णवों के समाज में क्या आप ही सबसे बड़े और विद्वान वैष्णव हैं ?' यह बत सुनकर वह तिलकधारी दोनों कानों
में अंगुली डालकर अद्भुत भाव-भंगिमा दिखाते हुए कहने लगे --'विष्णु ! विष्णु !' यह कह कर उन्होंने दीनता भरी कई बातें उन्हें बतायीं परन्तु आप उनके उत्तरों से सन्तुष्ट न हुए और चले आये।
अन्वेषण चलता रहा। किसी ने सूचना दी कि ढाका शहर के निकट ही 'कमलपुर' नामक गाँव में रामकृष्ण मिशन के एक संन्यासी महात्मा रहते हैं। नरेन्द्रनाथ ने वहाँ पहुँचकर, प्रसन्न वदन 'खोका महाराज' जी को प्रणाम किया। स्वामीजी ने आपसे आने का कारण पूछा। नरेन्द्रनाथ जी बोले, 'मुझे कृष्ण अच्छे लगते हैं ।'
मुस्कराते हुए स्वामी जी बोले, 'ठीक है, मैं तुम्हें कृष्ण मन्त्र की ही दीक्षा दूँगा।'
कुछ समय चुप रहने के बाद नरेन्द्रनाथ जी ने पूछा, 'अच्छा महाराज ! आप किन की उपासना करते हैं और कौन सा मन्त्र जप करते हैं ?'
स्वामी जी ने कहा, 'मैं काली देवी की उपासना करता हूँ एवं शक्ति मन्त्र की आराधना करता हूँ।'
नरेन्द्रनाथ जी ने विनीत भाव से प्रणाम कर कहा, 'क्षमा करना, मैं आपसे कृष्णमन्त्र नहीं लूँगा, मैं श्रीकृष्ण की उपासना करने वाले महात्मा से ही दीक्षा लेना चाहता हूँ ।'
स्वामी जी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया, 'तुम्हारी निष्ठा की बात सुनकर मैं प्रसन्न हूँ । जाओ, शीघ्र ही तुम्हें अपने वान्छित गुरु का साक्षात्कार हो जायेगा।'
नरेन्द्रनाथ जी उन स्वामी जी को प्रणाम कर वापिस आ गये। गेण्डेरिया पल्ली में श्रीयुता सरजूवाला नाम की एक विदुषी महिला के मकान का एक अंश किराये पर लिया गया था। वहीं नरेन्द्रनाथ जी अपने पिता-माता के साथ रह रहे थे। अच्छे चिकित्सकों से अपने पिताजी की चिकित्सा करवा रहे थे। श्रीयुता सरजूवाला जी विदुषी महिला थीं। उनके पास टेबल - हारमोनियम रखा हुआ था। उसे लेकर प्रतिदिन सायंकाल नरेन्द्रनाथ जी बड़े भाव के साथ हरिकीर्तन एवं प्रार्थना गाया करते थे। नरेन्द्रनाथ जी का दिनभर सद्-गुरु का अन्वेषण, पिताजी को गम्भीर रोग होने पर भी निश्चिन्तता, जीवनयात्रा के प्रति उदासीनता आदि गुण श्रीयुता सरजूवाला की दृष्टि में आ गये। एक दिन उन्होंने युवक नरेन्द्रनाथ से कहा -- 'नरेन ! तुम्हारी मानसिक अवस्था मैं समझती हूँ। तुम संसार से दूर जाना चाहते हो। तुम्हारे अन्दर सद्-गुरु प्राप्त करने के लिए व्याकुलता है। मैं तुम्हें एक अच्छी सलाह देती हूँ । तुम ढाका नवाबपुर स्थित माध्व गौड़ीय मठ में जाओ, वहाँ जाने से तुम्हें शांति मिलेगी।'

'माध्व गौड़ीय मठ' नाम सुनते ही अपके हृदय में एक अभूतपूर्व आनन्द की लहर जाग उठी। इससे पहले आपने कभी गौड़ीय मठ का नाम नहीं सुना था। अधिक व्यग्रता के कारण रात-भर ठीक से नींद नहीं आयी। दूसरे दिन पिताजी के लिए औषधि की व्यवस्था करने के बाद आप सीधे नवाबपुर 'माध्व गौड़ीय मठ' में पहुँच गये। मठ के सामने आकर देखा कि भवन की पहली मंजिल के बरामदे में एक साधु जपमाला हाथ में लेकर टहल रहा है। शीघ्रता के साथ ऊपर पहुँचकर साधु जी को प्रणाम किया । साधु बोले -- 'मठ रक्षक बाहर गये हैं । उनको वापस आने में देर होगी।'
नरेन्द्रनाथ जी नम्रता से बोले, 'कोई व्यस्तता नहीं है, यदि कुछ समय प्रतीक्षा करने की अनुमति मिले तो मठ-रक्षक से मिलकर ही जाऊँगा ।' उन साधु का नाम श्री राधाबल्लभ ब्रजवासी था, उन्होंने सत्संग भवन का दरवाज़ा खोल दिया और आपको वहाँ पर प्रतीक्षा व विश्राम करने के लिए कहा। दरवाज़े से जब अन्दर दृष्टि पड़ी तो दीवार पर एक चित्रपट नज़र आया। त्रिदण्डिधारी, उज्जवल मुखकान्ति युक्त आजानुभुजा व अपूर्व सौम्य एक संन्यासी महापुरुष स्वर्ण कमल के ऊपर विराजमान हैं।
प्रथम दर्शन में ही युवक नरेन्द्रनाथ ने पहचान लिया। आपका हृदय पुकार उठा, 'यही मेरे नित्य आराध्य श्रीगुरुदेव हैं जिनके अन्वेषण करते हुए मैं इतने दिन से भटक रहा था। हे मेरे गुरुदेव ! मुझे स्वीकार कीजिये ।' आपका शरीर रोमांचित हो गया। आनन्द से अश्रुधारा बह निकली और गला अवरूद्ध हो गया। आप भवन के फर्श पर ही बैठ गये ।
कुछ समय के मठ रक्षक श्रीसत्येन्द्र ब्रह्मचारी जी आये। नरेन्द्रनाथ जी को उपदेश करने लगे कि गुरु-पदाश्रय करना चाहिए।
संसार में फंसना तो अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना है। नरेन्द्रनाथ जी के मन में उन महापुरुष का चित्र बैठ गया था। शाम के समय मन्दिर खुलने पर नरेन्द्रनाथ जी ने भव्य मन्दिर में श्रीगौरांग महाप्रभु के अपूर्व श्रीविग्रह के दर्शन किया । श्रीमन्महाप्रभु जी को दण्डवत् कर श्रीगुरुपादपद्म लाभ करने के लिए हृदय के आर्त-भाव को उनके चरणों में निवेदन किया।
सन्ध्या आरती हो जाने के बाद आपने अपने मन की बात खोलकर श्रीयुत सत्येन्द्र ब्रह्मचारी जी से की व साथ ही उन महापुरुष के बारे में पुछा।
ब्रह्मचारी ने बताया, 'यह हमारे गुरुदेव जी का चित्रपट है। उनका नाम परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज हैं।
श्रीनरेन्द्रनाथा जी आगे चल कर श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी के शिष्य श्रीमद् भक्ति हृदय वन गोस्वामी महाराज कहलाये।
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