गुरुवार, 26 मई 2016

श्रीराय रामानन्द जी

एक समय की बात है जब भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभुजी की भेंट श्रीराय रामानन्द जी से हुई। साधारणतयः भक्त प्रश्न करते हैं और भगवान उत्तर देते हैं, लेकिन यहां क्रम उल्टा था।

यहाँ श्रीमहाप्रभुजी प्रश्नकर्ता हुए और राय रामानन्दजी उत्तर देने वाले। यह बात अलग है कि श्रीमन् चैतन्य महाप्रभुजी की शक्ति से ही राय रामानन्द जी उत्तर देते हैं।
श्रीमहाप्रभु जी द्वारा राय रामानन्दजी को शास्त्र प्रमाण के साथ साध्य निर्णय करने के लिये कहे जाने पर, राय रामानन्द जी ने श्रीविष्णु भक्ति को ही साध्य निर्णय करके आस्तिक विचारों की क्रमोन्नति का प्रदर्शन किया।
वर्णाश्रम धर्म से आरम्भ करके श्रीकृष्ण में कर्म को अर्पण, कर्म त्याग, ज्ञानमिश्रा भक्ति तक शास्त्र प्रमाण के साथ बातें कहीं। 

श्रीमहाप्रभुजी ने इन सबको को 'बाहर की बात' कहा, क्योंकि श्रीमहाप्रभुजी द्वारा दी जाने वाली शुद्ध-भक्ति इन सब साधनों में नहीं थी।
कहने का तात्पर्य कि जो वेद-निषिद्ध कर्म करते हैं, उनको पहले वेद प्रसिद्ध कर्मों में प्रतिष्ठित होना होगा। वर्णाश्रम धर्म में प्रतिष्ठित होकर उसके बाद के स्तर कर्मार्पण पर अधिकार होगा। इस प्रकार क्रमोन्नति की बात बताई, परन्तु दूसरी ओर भक्ति निरपेक्ष है इसलिए भक्त का संग होने पर वह क्रम की अपेक्षा नहीं करती और प्राणी को भक्ति प्राप्त हो जाती है।

श्रीराय रामानन्द जी ने जब 'ज्ञान-शून्या' भक्ति की बात कही तब श्रीमहाप्रभुजी ने कहा 'यह है'। यहीं से श्रीमहाप्रभुजी की शिक्षा का प्रारम्भ है।

साधु के मुख से निकली हुई हरिकथा के श्रवण की बात जिस समय तक नहीं कही गयी, तब तक श्रीमहाप्रभुजी ने यह 'बाहर की बात है' कहा था। इसलिये शुद्धभक्ति के मुख से प्रवाहित हरिकथा सुनने से ही शुद्धभक्ति आरम्भ होती है। इस पर राय रामानन्द जी ने भक्ति के अलग-अलग स्तर की बात कहते-कहते भगवान की प्रेम भक्ति में शान्त प्रेम, दास्य प्रेम, सख्य प्रेम, वात्सल्य प्रेम वा कांत प्रेम की बात कही। अन्त में उन्होंने श्रीमती राधाजी के प्रेम की कथा और श्रीकृष्ण के स्वरूप व श्रीमती राधाजी के स्वरूप के बारे में भी बताया।

श्रीराय रामानन्द जी के सम्बन्ध में श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने लिखा है कि श्रीराय रामानन्द जी प्राकृत लोक दृष्टि में प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थ, संयतेन्द्रिय ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ या भिक्षु के रूप में देखे नहीं जाते। प्राकृत गृहस्थ लोग इन्द्रियों के वश होकर गृहव्रत धर्म को ग्रहण करते हैं, किन्तु घर में स्थित अप्राकृत वैष्णव, अवैष्णव गृहस्थ की भांति, लम्पट व इन्द्रियों के गुलाम होकर बिल्कुल षड़वर्ग के अधीन नहीं होते। गृहस्थाश्रम
लीला में श्रीरामानन्द प्रभु प्राकृत लोगों की भोगमयी दृष्टि से विषयी होने पर भी अप्राकृतिक देह वाले हैं, अप्राकृत कृष्ण लीला ही उनके शुद्ध सत्त्व अप्राकृत मन का हर समय विषय होता है, वे भगवान के चिद् विलास के विरोधी निर्विशेषवादी तार्किक नहीं थे। वे विषयों को त्याद देने वाले निर्गुण संन्यासियों को भी श्रीकृष्ण बोधहीन जड़ विषयों से छुड़ाकर, श्री कृष्ण के विषय में चिंतन कराने में समर्थ थे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें