रविवार, 3 अप्रैल 2016

अभय दान किसे कहते हैं? शास्त्रों में इसे सर्वोत्तम दान क्यों कहा गया है?

हम जो भी कमाते हैं उसमें बहुत से लोगों का हाथ होता है।  उस कमाई में जिसका जो-जो हिस्सा होता है, वो हमें दे देना चाहिये नहीं तो प्रकृति दूसरे तरीकों से, उसे हमसे छीन कर दे देती है।

जैसे, माता-पिता ने हमें पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया। आज हम को कमा
रहे हैं, कमाने लायक हुए हैंं, उसमें उनका हिस्सा है। हमारे पड़ोसी, हमारे मित्र, रिश्तेदार, इत्यादि चाहे वे आज दुनियाँ में हैं अथवा नहीं हैं, ऐसे बहुत से लोगों का हिस्सा है, उस धन की कमाई में जो हम आज कर रहे हैं। इसलिये सब का हिस्सा देना चाहिये।

सनातन धर्म में इसीलिये यह विधान दिया गया की आपके घर में किसी भी प्रकार का अनुष्ठान हो उसमें अपने मित्रों को, रिश्तेदारों को, पड़ोसियों को बुलाना चाहिये। भोजन-प्रसाद के लंगर लगाने चाहियें। इसका कारण
यह है की आप जिन-जिन के ॠणी हैं, उनके ॠण से उॠण हो जायें। अथवा आप को मौका मिलेगा की आप पुण्य कमायें।

दान विभिन्न प्रकार के हैं। जैसे भोजन दान। आप किसी को भोजन करवायें तो वो आपका दिल से शुक्रगुज़ार होगा। दिल से आपका धन्यवाद देगा। किन्तु जब छह-सात घंटे बाद उसको दोबारा भूख लगेगी तो फिर वो हाथ पसारेगा। आपके आगे नहीं पसारेगा तो कहीं और पसारेगा।
अगर किसी को पढ़ाया जाये, निःस्वार्थ भाव से स्कूल/कालेज़ में पढ़ाया जाये अथवा स्कूल-कालेज़ ही खोल दिये जायें जहाँ पर मुफ्त शिक्षा दी जाती हो, तो इसकी महिमा और भी ज्यादा है। क्योंकि अगर एक व्यक्ति समर्थ हो गया, अपने पैरों पर खड़ा हो गया धन कमाने के लिये तो वो किसी के आगे हाथ नहीं पसारेगा बल्कि कई हाथ पसारने वालों की सहायता कर सकता है। इसकिये कई बार अन्न दान से शिक्षा दान की महिमा को ज्यादा बखान किया जाता है।
औषधि दान की अपनी महिमा है। अब कोई बिमार ही हो गया तो पढ़ाई क्या करेगा? इसलिये औषधि दान की अपनी महिमा है।

इस प्रकार बहुत से दान हैं। अन्न दान, वस्त्र दान, शिक्षा दान, भुमि दान, कन्या दान, इत्यादि। दुनियाँ में प्रचलित सभी दानों में सर्वश्रेष्ठ दान है ---- 'अभय दान'।
अर्थात् व्यक्ति की सहायता करके उसे ऐसी स्थिति पर पहुँचा देना, जहाँ पर उसे कोई डर न हो, किसी भी प्रकार का अभाव न हो। यह स्थिति तब आती है जब किसी का भगवान के श्रीचरणों में अनुराग हो जाये। किसी की आत्म-वृत्ति जागृत हो जाये तो यहाँ पर भी सुखी है और वहाँ पर भी। ऐसा व्यक्ति जब दुनियाँ से कूच करता है तो परलोक में भी भगवान की सेवा में नियोजित रहता है, आनन्द में रहता है।

जैसे श्रीहनुमान जी। वे हर समय भगवान श्रीराम की सेवा में रहते हैं।
उनको कोई अभाव नहीं, किसी प्रकार का उन पर कोई प्रभाव नहीं। बल्कि उनका स्मरण करने से दूसरों के सारे प्रभाव-अभाव चले जाते हैं।

तो, किसी को भगवान का भक्त बनाना, किसी को भगवान का भक्त बनने में सहायता करना, इसके लिये कोशिश करना ही सभी दानों से श्रेष्ठ दान है।
आज जो विश्व में यह जो श्रीहरिनाम संकीर्तन चल रहा है, उसके मूल में हैं जगद्-गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वाती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपादजी। वे कहा करते थे - जीव की बहिर्मुख रुचि को बदलना ही सर्वपेक्षा, जो द्यालु व्यक्ति हैं उनका एकमात्र कर्तव्य है। माया के जाल से एक जीव की भी रक्षा कर सको तो अनन्त कोटि अस्पताल बनाने की अपेक्षा अनन्त कोटि परोपकार का कार्य होगा। क्योंकि जिसको भी आप भोजन दान या भूमि दान या वस्त्र दान या कन्या दान कर रहे हैं, उससे वो
84 लाख योनियों के चक्कर से मुक्त नहीं हो रहा है। यदि एक बार कोई अभय दान को प्राप्त कर ले तो वो दुनियाँ के सारे चक्करों से मुक्त हो कर भगवद् धाम में चला जायेगा। उसका दुःखों का, जन्म-मृत्यु का चक्कर हमेशा-हमेशा के लिये समाप्त हो जायेगा।

तो अभय दान करना, किसी की भगवद् भक्ति में सहायता करना, किसी को भगवान की ओर लेकर आना सर्वश्रेष्ठ दान है। कोई व्यक्ति अभय दान के साथ-साथ भोजन दान, वस्त्र दान, औषधि दान, कन्या दान, इत्यादि भी करे तो सोने पर सुहागा ही होगा।

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