बुधवार, 13 जनवरी 2016

कृष्ण भक्त 'मीराबाई जी' के अनुसार भक्ति की क्या परिभाषा है?

मीराजी अपनी जीवन के अनुभव अपने भक्तों को बताते हुये कहती हैं -

'नित नहाने हरि मिलें, तो जल जन्तु होई।' 
सिर्फ नहाने से भगवान नहीं मिलते। कोई कहे मैं रोज़ नहाता हूँ, मैं दिन में दो बार नहाता हूँ या दिन में तीन बार नहाता हूँ तो इससे भगवान नहीं मिलते। मीरा जी कहती हैं यदि नहाने से भगवान मिलते तो पानी के अन्दर रहने वाले जानवरों, मच्छली, मगरमच्छ, इत्यादि को भी भगवान मिल जाते। 

'फल मूल खाकर हरि मिलें, तो बहुत बादुर बदराई'
कोई कहे कि मैं तो अन्न नहीं खाता हूँ, मैं तो केवल फल ही खाता हूँ। मीरा जी कहती हैं यदि फल खाने से भगवान मिल जाते तो पक्षी, बन्दर, आदि जो केवल फल ही खाते हैं, उन्हें भी भगवान मिल जाते। लेकिन ऐसा है नहीं। 

'तृण खाकर हरि मिलें, तो बहुत मृगी अजा।'
कोई कहे मैं तो पूरा शाकाहारी हूँ, मांसाहार नहीं करता। तो इससे भी भगवान नहीं मिलते। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि व्यक्ति को मांसाहार
करना चाहिये। मांसाहार तो पाप है, उससे तो भगवान बिल्कुल नहीं मिलेंगे। मीरा जी कहती हैं यदि घास पत्ते खाने से भगवान मिलते तो बकरी जो केवल पत्ते खाती है या हिरन जो केवल घास खाता है, उसे भी भगवान मिल जाते। 

'स्त्री छोड़कर हरि मिलें, तो बहुत रहे हैं खोजा'
मीरा जी कहती हैं कि यदि कोई यह कहे कि हम तो सारा संसार छोड़ कर जंगल में रहेंगे, बाबाजी बन कर रहेंगे, हमें संसार से क्या लेना- देना तो
इससे अगर भगवान मिलते होते तो हिजड़ों को पहले मिलते क्योंकि वे तो शादी ही नहीं करते। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि शादी करने से भगवान मिल जायेंगे। हमारे इतने जन्म हो चुके हैं हर जन्म में हमारा परिवार होता है। इससे अगर हमें मोक्ष प्राप्त होता या भगवान की प्राप्ति तो हर जन्म में हम यूँ संसार में नहीं फंस रहे होते। हम अभी तक 84 के चक्कर में हैं। इसका मतलब है कि हम अभी तक भगवद् धाम गये ही नहीं। 

श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि यदि कोई मेरे धाम आ जाता है, उसकी वहाँ से वापसी नहीं होती। इसका सीधा सीधा अर्थ है कि हमें आज तक भगवान की प्राप्ति नहीं हुई। 

मीरा जी कहती हैं - 'घर-बार छोड़ने से भगवान की प्राप्ति नहीं होती।' 

'दूध पीकर हरि मिलें, तो बहु वत्स बाला।' 
कोई कहे कि मैं तो केवल दूध ही पीता हूँ। मीरा जी कहती हैं कि यदि दूध पीकर भगवान मिलते तो बहुत से बच्चे हैं जो केवल दूध ही पीते हैं, उन्हें भगवान प्राप्त हो चुके होते।
मीरा जी कहती हैं -
'मीरा कहे बिना प्रेम से, नहिं मिले नन्दलाला॥'
जब तक तुम्हें भगवान श्रीकृष्ण से प्रेम नहीं होगा, तब तक भगवान नहीं मिलेंगे। 

यह प्रेम क्या है? भगवद् प्रेम क्या होता है? 

इसकी व्याख्या सुप्रसिद्ध पण्डित व भगवान के मधुर रस के प्रेमी भक्त श्रील कृष्ण दास कविराजजी ने श्रीचैतन्य चरितामृत में की है। उन्होंने लिखा है जब हमारी सारी की सारी क्रियायें भगवान की प्रसन्नता के लिये होंगी, हरिनाम करना - आरती करना-
एकादशी का व्रत करना - संकीर्तन करना - हरिकथा सुनना - मन्दिर जाना - भक्तों की सेवा करना - लोगों से बातचीत करना - भोग लगाना - व्यवहार करना - पहरावा- यह सब जब सिर्फ श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये करेंगे और उसके बदले में कुछ नहीं मांगेंगे तो यह प्रेम कहलायेगा। 
अगर हम अपनी किसी क्रिया के बदले में भगवान से कुछ मांग लेते हैं तो वो प्रेम नहीं होता। भगवान की प्रसन्नता के लिये भक्ति के अंगों को जीवन में ढालना, उसे प्रेम कहते हैं। 

जब तक प्रेम नहीं होगा, तब तक श्रीकृष्ण प्राप्त नहीं होंगे।
नित नहाने हरि मिलें, तो जल जन्तु होई।
फल मूल खाकर हरि मिलें, तो बहुत बादुर बदराई॥

तृण खाकर हरि मिलें, तो बहुत मृगी अजा।
स्त्री छोड़कर हरि मिलें, तो बहुत रहे हैं खोजा॥

दूध पीकर हरि मिलें, तो बहु वत्स बाला।
मीरा कहे बिना प्रेम से, नहिं मिले नन्दलाला॥

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