शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

लोहे की दिवार के पीछे के देशों के - प्रथम शूरवीर प्रचारक

जब श्रील ए. सी. भक्ति वेदान्त स्वामी महाराज अमेरिका गये, उस समय साम्यवाद और पूँजीवाद में युद्ध चल रहा था। वियतनाम का युद्ध जीतने बाद साम्यवादी देशों की शक्ति बढ़ने लगी और उस समय कोई भी यह कल्पना नहीं कर सकता था कि स्थिति में कोई परिवर्तन आयेगा। श्रील ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज जी ने अपने शिष्यों को साम्यवादी देशों (Communist countries) में भी प्रचार करने को कहा, जहाँ नास्तिकवाद फल-फूल रहा था। 

अनेक प्रयासों के बाद Professor G.G. Kotovsky जो USSR के Indian and South Asian Studies विभाग के मुख्य थे, ने श्रील स्वामी महाराजजी को अधिकारिक रूप से मास्को आने का निमन्त्रण दिया। महाराज जी ने 5 दिन रूसी भूमि पर बिताए जिससे उन्हें वहाँ पर श्रीकृष्ण भावनामृत अन्दोलन स्थापित करने का सुअवसर मिला। सोवियत रूस में एक युवा जिज्ञासु उनसे मिला जिसका नाम था Anatoly Pinyayev। दीक्षा के बाद जिनका नाम अनन्त शान्ति दास हुआ। उस समय श्रीअनन्त शान्ति दास ही सोवियत यूनियन में श्रील स्वामी महाराजजी के एकमात्र उत्साही शिष्य थे, जो बाद में रूस में बहुत से नए प्रचार केन्द्र बनाने के लिए निमित्त बने। जब प्रचार बड़ा तीव्र गति से चल रहा था तो श्रील ए. सी. भक्ति वेदान्त स्वामी महाराज ने फ्रांस की एक भक्त मंदाकिनी माताजी को भी उनकी सहायता के लिये भेजा था।

साम्यवादियों को प्रचार करने में कई सुविधायें थीं। जैसे - उनका जीवन बहुत साधारण था, उनका कोई भी व्यक्ति अपनी रूचि अनुसार कोई भी
पुस्तक पढ़ सकता था। बस, ग्रन्थ - वितरण बहुत ही सावधानी से व चोरी छुपे करना होता था। उन्हीं दिनों हंगरी ने नन्दाफाल्व में पहला श्रीकृष्ण भावनामृत संघ बना। ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्णानंद दास और श्रीजनार्दन महाराजजी जैसे अग्रणी भक्तों को वहाँ की स्थानीय पुलिस से काफी उलझना पड़ा था।

योगोस्लाविया भी साम्यवादी था किन्तु अन्य देशों की तुलना में इसके नियम ज्यादा कठोर नहीं थे। पूर्व जर्मनी के प्रचारक यहाँ 24 घंटे का वीज़ा लेकर आ-जा सकते थे। वहाँ पर भक्तों ने बहुत से विश्वविद्यालयों में श्रील स्वामी महाराजजी की पुस्तकों व श्रीमद् भगवद् गीता आदि ग्रन्थों को बांटा।

पूर्व जर्मनी में श्रील स्वामी महाराजजी के पहले शिष्य थे, श्रीएकदास जी। जब 'एकदास जी' प्रचार गतिविधियों के कारण गिरफ्तार हुए तो जेल में
उन्हें अकेले ही कैद करके रखा गया। तब भी उन्होंने वहाँ 64 माला जप की और उनका भोजन ग्रहण करने से इन्कार कर दिया। कुछ महीनों के बाद साम्यवाद शासन प्रणाली ने यह निर्णय लिया कि वे इस भिक्षु पर नियंत्रण नहीं रख सकते और बेहतर यही होगा कि वह उसे अपने देश से निकाल दें। अतः एक रात्रि उन्हें देश निकाला देकर पश्चिम जर्मनी भेज दिया गया।

उधर रूसी भक्तों को अत्यन्त कठोर तरीके से सताया जा रहा था। अधिकतर भक्त जिनकी दृढ़ श्रद्धा थी उनको घोर कष्ट दिये गये जिससे
जेल में ही कईयों की मृत्यु हो गयी। कीर्तिराज दासजी जो सोवियत यूनियन के क्षेत्रीय सचिव थे, ने समाचार प्रकाशित कर और प्रदर्शन कर सोवियत अधिकारियों पर दबाव बना कर बंदी बनाए हुए भक्तों को छोड़ने और हरे कृष्ण अन्दोलन के सदस्यों पर अत्याचार रोकने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय अभियान चालू किया। Mikhail Gorbachev उस समय सोवियत युनियन के साम्यवादी दल के प्रमुख सचिव थे ---- वे ही रूसी भक्तों को अत्याचारों और पीड़ाओं से मुक्त कराने के मूल कारण बने।
श्रील भक्ति अभय नारायण महाराजजी ने श्रील भक्ति आलोक परमाद्वैती महाराजजी के साथ हंगरी में पहला प्रचार कार्यक्रम बनाया। वहाँ वे अपने साथ एक गाड़ी भरकर ग्रन्थ ले गए। हंगरी के विभिन्न शहरों में हरिकथा, संकीर्तन और ग्रन्थ बांटकर उन्होंने पहले प्रचार दौरे का सुन्दर परिचालन किया।

भारतीय दूतावास के राजदूत श्री के. रघुनाथजी का रूस में दिये गए भाषण का भी इस अन्दोलन के लिये बहित अच्छा प्रभाव पड़ा। उन्होंने घोषणा की -- 'श्रीकृष्ण भावनामृत अन्दोलन प्रशंसा के योग्य है क्योंकि इसने रूस और भारत के बीच मैत्रीपूर्ण भावना को और बलशाली बना दिया है।' इस घोषणा के बाद मंदिर बनाने के अभियान में सारे विश्व से बढ़-चढ़ कर समर्थन प्राप्त हुआ। धीरे-धीरे यह अंदोलन रूसी भूमि पर अत्यन्त मज़बूत बन गया।

अन्य संकटपूर्ण स्थानों पर अग्रणी

1) श्रील ए. सी. भक्ति वेदान्त स्वामी महाराजजी की बड़ी इच्छा थी कि
श्रीकृष्ण भावनामृत विश्व के प्रत्येक कोने तक पहुँचना चाहिये। इसके लिये उन्होंने अपना आशीर्वाद देकर कई भक्तों को चीन भी भेजा। श्रीदयानन्द दासजी को दक्षिणी अरब भेजा, जहाँ पर उन्होंने भगवद्-नाम प्रचार की बहुत अच्छी छाप छोड़ी। श्रील स्वामी महाराज जी ने अपने कुछ शिष्यों को पाकिस्तान और बेरूत भी भेजा। उन्होंने श्रीत्रिभुवनाथ दासजी को तुर्की भेजा। श्रील स्वामी महाराजजी ने अपने कुछ शूरवीर प्रचारकों को चाइल और अर्जेंटीना भेजा, जो उस समय पूरी तरह से मिलिट्री शासन की पकड़ में थे।
एक समय तो ऐसा भी आया जब वहाँ के तानाशाह  Jorge Rafael Videla ने आदेश दिया कि सभी प्रचारकों को गिरफ्तार कर लिया जाये, विग्रह (मूर्ति) तथा ग्रन्थ नष्ट कर दिये जायें। तब श्रीहनुमान दासजी, श्रीअतुलानन्द दासजी और श्रीकंक दासजी आदि प्रचारकों ने तुरन्त अर्जेंटीना छोड़ने का फैसला लिया व विग्रह तथा ग्रन्थों को बचाते हुए ब्राज़ील पहुँच गये। श्रीकृष्ण की इच्छा से जब मिलिट्री तानाशाही स्माप्त हुई तो श्रीकृष्ण भावनामृत अन्दोलन अर्ज़ेंटीना में पुनः लौटा।

2) वैष्णव सेवा के लिये हम श्रीमती ह्लादिनी देवी दासी जी को विशेष रूप
से धन्यवाद देना चाहते हैं जो श्रीकृष्ण भावनामृत के महान अग्रणियों में से एक थीं। श्रील ए. सी. भक्ति वेदान्त स्वामी महाराजजी की इस शूरवीर शिष्या ने उस समय अपने प्राण खो दिये जब वह अफ्रीकी भक्तों पर क्रोधित तानाशाही सैनिकों से उनकी रक्षा करने का प्रयत्न कर रहीं थीं। इस घटना में श्रीमती ह्लादिनी देवी दासी जी और उनके पुत्रों को जान से मार दिया गया था।

3) रूस की एक भक्त श्रीमती प्रेमवती माताजी को भी बंदी बनाया गया था हालांकि वे उस समय गर्भवती थीं। उनके बच्चे के जन्म के बाद अधिकारियों ने सताने के लिये बच्चे के साथ दिन-रात में केवल एक घंटे
का समय बिताने की अनुमति दी थी। वे उनसे यह जानकारी प्राप्त करना चाहते थे कि उनके अन्य साथी भक्त कहाँ पर हैं जिन्हें वे पकड़ कर बन्दी बनाना चाहते थे और उनके न बताने पर जेल के आफिसर ने उनके छोटे से बच्चे को क्रूरता से मार दिया था।

4) श्रीशचीसुत दासजी नामक भगवान के भक्त का आश्चर्यजनक व्यक्तित्व था और उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य श्रील ए. सी. भक्ति वेदान्त स्वामी महाराज के ग्रन्थों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाना
था।( इस सेवा के दौरान उन्हें बंदी बना लिया गया था। उन्हें असहनीय यातनायें दी गयीं थीं कि उनकी जेल में ही मृत्यु हो गयी थी।

(स्मारिका नामक पुस्तक से) , विश्व वैष्णव राज सभा द्वारा प्रकाशित।

-- स्वामी परमाद्वैति महाराज, जर्मन 
सैक्रेटरी, विश्व वैष्णव राजसभा ।

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