शनिवार, 7 नवंबर 2015

आप तो परलोकवासी हो गये थे, यहाँ कैसे आ गये?

बहुत समय पहले की बात है। मुचुकुन्द नाम के प्रसिद्ध राजा थे। उनकी देवताओं से गहरी मित्रता थी। वे सत्यवादी, विष्णु-भक्त तथा भजन करने वाले थे। बड़ी कुशलता से राज्य का संचालन करते थे।

एक बार आपके यहाँ एक कन्या का जन्म हुआ। वहाँ की श्रेष्ठ नदी 'चन्द्रभागा' के नाम पर उस कन्या का नाम हुआ 'चन्द्रभागा'।

महाराज चन्द्रसेन के पुत्र शोभन के साथ उसका विवाह हुआ। एक दिन शोभन अपने ससुर मुचुकुन्दजी के घर आया। संयोग से उस दिन एकादशी थी।

चन्द्रभागा ने सोचा कि मेरा पति तो कमज़ोर है, भूख सहन नहीं कर पायेंगे। अब क्या होगा? क्योंकि यहाँ पर मेरे पिताजी के शासन के नियम-कानून भी कठोर हैं। दशमी के दिन नगाड़ा बजा कर, ढिंढोरा पिटवा कर एकादशी व्रत की सूचना दे दी गयी है कि एकादशी के दिन किसी को भी अन्न-भोजन नहीं खाना है। सभी को अनिवार्य रूप से एकादशी व्रत करना पड़ेगा।

ढिंढोरा सुनकर शोभन ने अपनी पत्नी से कहा - प्रिये! अब हमें क्या करना चाहिये। अब हमें ऐसा कोई उपाय करना चाहिये कि जिससे मेरे प्राणों की रक्षा हो जाये और राजा की आज्ञा का पालन भी हो जाये।

चन्द्रभागा ने कहा - पतिदेव! आज मेरे पिताजी के परिवार में, पूरे राज्य में मनुष्यों की तो बात ही क्या, हाथी, घोड़े, गौ आदि पशु भी अन्न का भोजन करेंगे। हे मेरे स्वामी, ऐसी अवस्था में फिर आप भोजन कहाँ से करेंगे? अतः यदि भोजन करना ही है तो अपने
घर जाकर ही हो सकता है। आप ही बतायें की क्या किया जाये?

शोभन ने कहा- प्रिये! तुमने तो ठीक ही कहा है लेकिन मेरी इच्छा है कि मैं भी व्रत करूँ। अब तो भाग्य से जो होगा, देखा जायेगा। 

इस प्रकार शोभन ने निश्चय कर एकादशी पर निर्जला उपवास किया। दिन तो किसी प्रकार से निकल गया किन्तु रात में भूख-प्यास बढ़ने लगी। व्रत पालन करने वाले वैष्णवों ने सारा दिन बड़े उत्साह से खूब नृत्य-कीर्तन किया था। रात्रि में भी भक्त-गण भगवान श्रीहरि की पूजा, कीर्तन करते हुये जागरण करने लगे। किन्तु शोभन के लिये यह सब असहनीय हो गया। वह रात्रि उसके लिये काल-रात्रि बन गयी। दूसरे दिन सुबह होते ही
उसके प्राण शरीर छोड़ कर निकल गये और उसकी मृत्यु हो गयी।

महाराज मुचुकुन्द ने इसे भगवत्-इच्छा मानकर संयम कर लिया। शोभन के परलोक-गमन के बाद चन्द्रभागा अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

इधर रमा एकादशी के व्रत के प्रभाव से शोभन मन्द्रांचल पर्वत के शिखर पर बसे सुन्दर देवनगर का स्वामी बन गया। वहाँ उसे पूर्ण स्वस्थ शरीर मिला था, व अद्भुत वैभव था उसका। वहाँ पर वह दूसरा इन्द्र ही लगता था।

एक बार राजा मुचुकुन्दजी के नगर में रहने वाला सोम शर्मा नाम का एक ब्राह्मण तीर्थों की यात्रा करते-करते देव नगर पहुँचा। वहाँ पर उसने राजा के दामाद शोभन को पहचान लिया। वह उनसे मिलने गया। शोभन ने उनका स्वागत किया व आराम से बिठाया। बातों ही बातों में उस ब्राह्मण ने शोभन से राजा मुचुकुन्द व चन्द्रभागा की चर्चा छेड़ दी। इससे शोभन को पूर्व-स्मृति हो आयी। शोभन ने फिर सभी का हाल-चाल जानने की इच्छा व्यक्त की।  ब्राह्मण ने सभी का हाल बताते हुये पूछ ही लिया कि आप तो परलोकवासी हो गये थे, यहाँ कैसे आ गये? 

तब राजा शोभन ने कहा - हे ब्राह्मण देव! कार्तिक महीने की 'रमा' एकादशी का व्रत पालन करने से मुझे इस नगर का राज्य मिला। किन्तु यह स्थिर नहीं है। आप कोई उपाय बतायें जिससे यह स्थिर रह जाये। मैंने बिना श्रद्धा के ही एकादशी व्रत किया था, शायद इसीलिये मुझे कुछ समय के लिये ही यह राज्य मिला है। आप यह सारी बार राजा मुचुकुन्द की पुत्री चन्दभागा से कहें, वो इस नगर को लम्बे समय तक रहने का उपाय कर सकती है।

ब्राहमण ने वापिस आकर राजा व उनकी पुत्री को सारी बात बताई, जिससे वे प्रसन्न भी हुये और हैरान भी।

चन्द्रभागा ने कहा - आप मुझे वहाँ ले चलिये। मैं अपने पति को मिलना चाहती हूँ। 

सोम शर्मा ब्राह्मण चन्द्रभागा को लेकर मन्दाचल पर्वत के पास श्रीवामदेव के आश्रम में ले आया। सारी बात जानकर श्रीवामदेव जी ने चन्द्रभागा क वेद मन्त्रों के द्वारा अभिषेक किया। उन मन्त्रों के प्रभाव व चन्द्रभागा के एकादशी व्रत के प्रभाव से चन्द्रभागा दिव्य शरीर तथा दिव्य गति से अपने पति के पास पहुँच गयी।  अपने एकादशी व्रतों के प्रभाव से उसने उस नगर को बसा लिया व उसे स्थिर कर दिया। फिर वो अपने पति के साथ वहीं रहने लगी।

श्रीब्रह्मवैर्वर्त्त पुराण के अनुसार - शुद्ध भक्तगण अपनी इन्द्रियों की इच्छापूर्ति की इच्छा न करके, श्रीकृष्ण-प्रीरि व श्रीकृष्ण की इच्छा को पूरा करने के लिये व शुद्ध भक्ति के प्रेमफल की प्राप्ति के लिये एकादशी व्रत करते हैं।

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