या यह भी प्रश्न हो सकता है कि क्या प्राणी जन्म लेते ही यह अधिकार प्राप्त कर लेता है कि उसे क्या खाना है और क्या नहीं खाना है, इसका निर्णय केवल वही करेगा? वैसे जब भी मनुष्य यह समझ लेगा कि उसका खान-पान तो प्रकृति के हाथ में है, तो यह समस्या ही खत्म हो जायेगी। वास्तव में प्रकृति ही हमारे भोजन की मूल नियन्त्रक है। शुद्ध जल, पौष्टिक आहार के लिये हम सब भगवान और प्रकृति पर निर्भर रहते हैं।
चाहे कोई इसे माने, चाहे नहीं, किन्तु है यह सत्य ही।
मनुष्य जब बाल्य अवस्था में होता है तो उसके खाने-पीने का निर्णय उसके बड़े-माता-पिता, इत्यादि करते हैं। एक बिमार व्यक्ति क्या खायेगा,
इसका निर्णय डाक्टर करता है। बहुत ठण्डे प्रदेश, बहुत गर्म प्रदेशों में बहुत सी खाने-पीने की वस्तुयें पैदा ही नहीं होतीं। कहीं-कहीं पर हमें धार्मिक भावनाओं, सामाजिक मर्यादाओं के अनुसार ही खाना-पीना पड़ता है।
वैसे अपनी-अपनी शरीरिक क्षमताओं, वा सीमाओं के कारण बहुत से
में नहीं खा सकते जिस रूप में वे पैदा होते हैं। इस प्रकार की बहुत सी बातें हैं, जिन्हें समझ लेने से - जान लेने से, हम यह जान लेंगे कि हमारा खाना-पीना काफी हद तक दूसरों पर निर्भर करता है।
ऐसे में हमें क्या करना चाहिये? हमें सहनशीलता का धर्म अपनाना चाहिये।
धर्म क्या है? धर्म वो है जो हमें, परिवार को, समाज को, देश को, यहाँ तक कि विश्व को जोड़ के रखता है। धर्म ही हमें जीवन में शान्ति, सत्य, न्याय की शिक्षा देता है। सहनशीलता धर्म का एक स्तम्भ है।
दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुँचाना धर्म का एक अंग है। जहाँ-जहाँ धर्म की हानि होती है, वहाँ-वहाँ ही मन में असन्तोष होता है। ऐसा कभी नहीं होता कि कोई व्यक्ति किसी से प्यार करे और उसका कान, नाक या
कोई अंग काटे। व्यक्ति जब किसी से प्यार करेगा तो उसके सभी अंगों को सुख देने का प्रयास करेगा। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति भगवान से प्यार करेगा तो वो भगवान के किसी भी प्राणी को काट कर खा नहीं सकता। अथवा जब कोई व्यक्ति भगवान को प्रेम करेगा तो वो भगवान के बनाये सभी प्राणियों से प्यार करेगा। कहने का मतलब भगवान को प्रेम करने वाला किसी भी प्राणी को मार कर खा नहीं सकता।
जहाँ आपसी प्रेम होता है, वहाँ हम सहन भी करते हैं। वहीं अहिंसा भी होती है।
तब यह प्रश्न ही नहीं उठता कि हम इन दिनों में ये क्यों न खायें। आपसी प्रेम भाव होने से दूसरे के सुख-दुःख की भी हमें चिन्ता होगी। इससे ही आपस में अमन-शान्ति का वातावरण होगा। यही श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शिक्षा है।
(अखिल भारतीय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के सौजन्य से)
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