गुरुवार, 24 सितंबर 2015

एकादशी-व्रत का पालन करने वाले लोग तीन प्रकार के होते हैं


इस संसार में एकादशी-व्रत का पालन करने वाले लोग तीन प्रकार के होते हैं --

1) प्रथम श्रेणी -  इस संसार में ऐसे व्यक्तियों की संख्या सबसे ज्यादा है जो अपने व दूसरे के शरीरों को ही व्यक्ति मानते हैं। उनका मानना है कि शास्त्र व ॠषियों ने जो व्यवस्था व नियम बनाये हैं, वे सभी इस स्थूल देह को बचाने व इसकी ही उन्नति के लिए हैं। इसी बात को मान कर, वे शास्त्रों के सभी विधि-विधानों का पालन करते हैं और इसी प्रकार की युक्तियाँ दे कर दूसरों को समझाते हैं। इनको आत्मा के अस्तित्व में भी सन्देह होता है। ये लोग एकादशी आदि व्रत भी शरीर की पुष्टि के लिए ही करते हैं । इनके मतानुसार आत्मा का अस्तित्व भी शरिर के लिए ही है।

2) दूसरी श्रेणी - इन व्यक्तियों का मानना है कि जीव का स्वरूप आत्मा है, देह नहीं। वे ये भी मानते हैं कि सभी जीवों के कारण परमेश्वर हैं तथा उन परमेश्वर  की आराधना करना, जीवों का कर्तव्य है। ये लोग शास्त्रों में विश्वास रखते हैं परन्तु वे यह मानते हैं कि शास्त्रों के विधि-विधान आत्मा के कल्याण के लिए भी हैं और देह के सुख के लिए भी। इसलिये 
इनके मतानुसार शास्त्रों में एकादशी व्रतादि की जो व्यवस्था है, उससे आत्मा का कल्याण भी होता है और शरीर के भी फायदे होते हैं।

3) तृतीय श्रेणी - यह श्रेणी सबसे उत्तम है, परन्तु इस श्रेणी के व्यक्तियों की संख्या बहुत कम है। इनके मतानुसार जीव का स्वरूप अणु-सच्चिदानन्दमय है। स्थूल देह व सूक्ष्म देह तो जीवात्मा के दो आवरण हैं। यह दोनों आवरण, भगवान श्रीहरि की माया शक्ति द्वारा उत्पन्न हुए हैं। तथा ये दोनों आवरण तो जीवात्मा पर थोपे हुए हैं। आत्मा को इनकी आवश्यकता नहीं है। प्राणियों की आत्मा, मन व शरीर, सब के सब भगवान के ही हैं। अतः आत्मा, मन व शरिर भगवान की सेवा में लगाना सभी प्राणियों का धर्म है। इस श्रेणी के लोग एकादशी आदि व्रतों को सिर्फ भगवान की प्रीति के लिए ही करते हैं।
श्रीहरि की आराधना करने से ही अपना व दूसरों का भला होता है। भगवान की शुद्ध-भक्ति ही परम शान्ति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। इस मत के व्यक्ति केवल भगवद्-प्रेम की प्राप्ति के लिए ही एकादशी आदि व्रतों का पालन करते हैं। इस श्रेणी के लोगों का मानना होता है कि भगवद-प्रेम की प्राप्ति ही भक्ति के सब साधनों का मुख्य उद्देश्य है। 

हमारे शास्त्रों में जिन भक्ति के अंगों की व्यवस्था दी गई है, वे किसी भी प्रकार से स्थूल व सूक्ष्म इन्द्रियों की तुष्टि अथवा सूक्ष्म व स्थूल देहों के सरंक्षण के लिए नहीं दी गयी है। 

श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनुगत शुद्ध - भक्त, उपरोक्त तीनों प्रकार के विचारों में से तीसरी श्रेणी के विचारों का ही आदर करते हैं।

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