गुरुवार, 29 जनवरी 2015

वह रास्ते में आगे-आगे उसे देखते हुए उल्टे चलता था……


मद्रास प्रांत में त्रिचनापल्ली के पास एक स्थान है उदयपुर । इसका पुराना नाम निचुलापुरी है।  यह वैष्णवों का एक पवित्र स्थान है। आज से लगभग एक हज़ार वर्ष पहले वहाँ पर एक धर्नुदास नाम का पहलवान रहता था। 
उसी स्थान पर हेमाम्बा नामक एक बहुत ही सुन्दर वेश्या भी रहती थी। धर्नुदास उस वेश्या की सुन्दरता पर बहुत मोहित था। वह जहाँ जाता, उसे साथ ले जाता। और अक्सर ऐसा होता कि वह रास्ते में आगे-आगे उसे देखते हुए उल्टे चलता। कहीं बैठता तो उस वेश्या के सामने ही बैठता। उसका व्यवहार अद्भुत था, परन्तु वह निर्लज्ज होकर उस स्त्री को देखना कभी भी नहीं छोड़ता था।

दक्षिण भारत का एक सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है - श्रीरंग क्षेत्र । त्रिचनपल्ली से यह श्रीरंगम् पास ही है। वर्ष में कई बार यहाँ महोत्सव होता है। दूर-दूर से लाखों यात्री यहाँ आते हैं। 

एक बार रंगनाथ जी का बासन्ती महोत्सव चल रहा था। धर्नुदास जी की प्रेयसी ने भी उत्सव देखना चाहा। धर्नुदास उसे तथा नौकरों-चाकरों को साथ लेकर निचलापुरी से श्रीरंगम् आ गया। गर्मी के दिन, नौ-दस बजे की कड़ी धूप और मार्ग खचाखच भीड़ से भरा था। जब की भीड़ में अकेले अपने शरीर को सम्भालना तक कठिन था, उस समय भी वहाँ धर्नुदास हाथ में छाता लेकर अपनी प्रेयसी को छाता किए हुए था। स्वयं धूप में, पसीने से लथपथ होकर उस स्त्री की ओर मुख करके पीछे चल रहा था। उसे मार्ग का तथा अपने शरीर का ध्यान तक नहीं था।


उन दिनों श्रीरामानुजाचार्य जी श्रीरंगम् में ही थे। दूसरों के लिए तो धर्नुदास का यह कृत्य पुराना था, लेकिन नवीन यात्री उसे कुतूहल से देख रहे थे। इधर श्रीरामानुज स्वामी (श्रीरामानुजाचार्य) की नज़र जब धर्नुदास पर पड़ी तो आपने अपने शिष्यों से पूछा --, 'वह निर्लज्ज कौन है? उससे जाकर कहो कि तीसरे पहर मठ में आकर मुझसे मिले।'


धर्नुदास ने उस शिष्य से रामानुजस्वामी का आदेश सुना तो सन्न हो गया। वह समझ गया -- आचार्य स्वामी अवश्य मेरी निर्लज्जता पर बिगड़े होंगे । बिगड़ने की तो बात ही है। सब लोग श्रद्धा - भक्ति से भगवान् के दर्शन करने आये हैं, यहाँ भी मैं एक स्त्री के सौन्दर्य पर मुग्ध हूँ। मठ पर जाने पर मुझे झिड़की सुननी पड़ेगी। पता नहीं, आचार्य स्वामी क्या आदेश देंगे। कितना डाँटेंगे ? ना जाऊँ, यह भी ठीक नहीं। इससे तो उनका अपमान होगा। अन्त में उसने मठ में जाना निश्चित किया।
उधर श्रीरामानुजस्वामी ने भगवान् श्रीरंगनाथ से मन्दिर में जाकर प्रार्थना की --'हे मेरे दयामय स्वामी ! एक विमुख जीव को अपने सौन्दर्य से आकर्षित करने अपने श्रीचरणों में स्वीकार करो।'

भोजन करके धर्नुदास मठ पहुँच गया। समाचार पाकर श्रीरामानुजास्वामी ने उसे मठ के भीतर बुला लिया और उसके अद्भुत व्यवहार का कारण पूछा। बड़ी नम्रता से, हाथ जोड़ कर धर्नुदास ने बताया -- ' स्वामी ! मैं उस स्त्री के सौन्दर्य पर पागल हो गया हूँ । उसे देखे बिना मुझ से रहा नहीं जाता। कामवासना तो मुझ में कुछ ऐसी प्रबल नहीं है, पर उसका रूप मुझसे छोड़ा नहीं जाता। मैं उसे न देखूं तो बेचैन हो जाता हूँ। महाराज ! आप जो आज्ञा करें, वही करूँगा, पर उसका साथ न छुड़ायें।'

श्रीरामानुजाचार्य जी ने कहा, --'यदि हम उससे बहुत अधिक सुन्दर मुख तुम्हें दिखलायें तो?'


धर्नुदास ने कहा --' महाराज ! उससे सुन्दर मुख देखने को मिले तो मैं उसे एकदम परित्याग कर सकता हूँ।'

धर्नुदास आज्ञा पाकर विदा हुआ। उसे बड़ा आश्चर्य हो रहा था । आचार्य स्वामी ने उस जैसे नीच जाति के पुरुष को मठ में भीतर बुलाया, पुत्र की भांति स्नेह से पास बिठाया और बिना डाँटे-फटकारे विदा कर दिया। उसे तो आशा थी कि आचार्यस्वामी उसे बहुत कुछ कहेंगे। वह भय से थर-थर कांपता आया था, कि कहीं मुझे शाप न दे दें। वह सब कुछ तो नहीं हुआ। घर आकर उसे स्त्री से सब बातें कह दीं। वह स्त्री भी नहीं चाहती थी कि धर्नुदास इस प्रकार उस पर लट्टू बना रहे। मार्ग में धर्नुदास उसके आगे-आगे पीछे की ओर चले। वह व्यवहार उसे भी लज्जाजनक जान पड़ता था । वह अब सच्चे हृदय से धर्नुदास की पत्नी थी। वह उसका सुधार चाहती थी, किन्तु इस भय से कि धर्नुदास उसे छोड़ न दे, कुछ कहती नहीं थी। उसे प्रसन्नता हुई इस आशा से कि आचार्यस्वामी धर्नुदास को सुधार देंगे।


जब संन्ध्या समय धर्नुदास श्रीरंगजी के मन्दिर में गया तो उसे किसी ने भीतर जाने से रोका नहीं। आचार्य स्वामी ने उसे ध्यानपूर्वक आरती के समय भगवान के दर्शन करने को कहा। धर्नुदास तो आरती के समय ही एकदम बदल गया। जिस सौन्दर्य-सुधासागर के एक सीकर से स्वर्ग का सारा सौन्दर्य निकला है, त्रिभुवन की सुषमा जिसकी छाया के किसी अंश में भी नहीं, उस सौन्दर्यसार सर्वस्व प्रभु की आज धर्नुदास ने एक झलक पायी और जब वह झांकी अदृश्य हो गई तो वह पागल की भांति आचार्यस्वामी के चरणों में लिपट गया।
उसके फूट-फूट कर रोते हुए कहा --'स्वामी! मुझे जो आज्ञा दें मैं वहीं करूंगा। कहो तो मैं अपने हाथ से अपने देह की बोटी-बोटी काट दूँ, पर वह त्रिभुवन-मोहन मुख मुझे दिखलाओ। ऐसी कृपा करो कि वह मुख मेरे नेत्रों के सामने ही रहे।'
धर्नुदास आचार्य के समझाने से घर आया। अब स्त्री तो उसे बहुत ही कुरूप जान पड़ने लगी। उसने आचार्य स्वामी की आज्ञा से ही उसे पत्नी बनाया था। कुछ दिनों बाद वे दोनों श्रीरामानुजाचार्य जी के शिष्य हो गए। श्रीस्वामी जी ने भी दोनों को आध्यात्मिक ज्ञान के विषय में विद्वान बना दिया। दोनों का आचरण आदर्श हो गया। धर्नुदास, स्वामी जी का अत्यन्त विश्वस्त अनुचर हो गया।
ऐसी थी श्रीरामानुजाचार्य जी की अहैतुकी कृपा ।
श्रीरामानुजाचार्य जी का प्राकट्य  सन् 1017 में श्रीपेरम्बदूर नामक स्थान पर हुआ था।  आपके पिताजी का नाम श्री आसुरि केश्वाचार्य दीक्षित था तथा माताजी का नाम श्रीमती कान्तिमती था। श्रीमती कान्तिमती जी श्रीशैलपूर्ण जी की छोटी बहिन थीं। श्रीशैलपूर्ण जी 'श्री' सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य श्रीयामुन मुनि के प्रधान शिष्यों में से एक थे।

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