भगवान ने जब मानव की रचना की तो उन्हें बहुत सन्तुष्टी हुई। केवल मनुष्य योनि ही एकमात्र ऐसी योनि है जो सही-गलत में अन्तर कर सकती है व भगवान की उपासना कर सकती है।

मनुष्य का जन्म अन्य पशु-पक्षी की तरह केवल खाने, सोने, रक्षा करने व सम्भोग करने के लिये नहीं हुआ।
फिर भी अक्सर देखा जाता है कि मनुष्य को भगवान के प्रति न के बराबर लगाव है। यह सत्य है कि हम गुण्वत्ता (quality) व संख्या (quantity) साथ-साथ नहीं पा सकते।
रावण को मारने के बाद व अपने 14 साल का बनवास पूर्ण होते ही भगवान श्रीरामचन्द्र जी पुष्पक विमान से माता सीता, हनुमान जी, सुग्रीव जी, लक्ष्मण जी, व अन्यों के साथ अयोध्या वापिस आये।
अयोध्या वासी, ब्रह्मा जी, व अन्य देवी-देवता उत्सव मना रहे थे व बेहद प्रसन्न थे।
जब भगवान श्रीरामचन्द्र को यह पता चला कि उनके भाई श्रीभरत इतने वर्ष (जब तक भगवान अयोध्या से दूर रहे) केवल मात्र गोमूत्र में पके जौं खाते रहे, वृक्ष की छाल ओड़े रहे, जटायें बनाये रहे व भूमि शयन करते रहे तो उन्हें बहुत दुःख हुआ।
भगवान के अयोध्या पधारने पर, भरत जी अपने सिर पर भगवान की पादुका लेकर, नन्दीग्राम से चलते हुये उनके सामने आये। भरत जी के साथ अयोध्या के मन्त्रीगण, पुजारी व नागरिक थे। सभी प्रसन्नता से नाच-गा रहे थे।
भगवान के दर्शन होते ही भरत जी प्रसन्नता के आँसु लिये, उनके चरणों में जा गिरे।
ओह! कैसा अद्भुत आदर्श चरित्र भरत जी का।
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आज के समय में आधुनिक मानव के लिये ऐसा सोचना भी असम्भव है।
वर्तमान समय में अधिकारी जन अपनी कुर्सी बचाने के लिये कुछ भी करेंगे। जहाँ पर अपनी कुर्सी से मोह होगा, वहा सही संचालन कैसे होगा? हमें भगवान श्रीराम व भरत जी से सीखना चाहिये कि अधिकारी कैसा होना चाहिये?

मनुष्य का जन्म अन्य पशु-पक्षी की तरह केवल खाने, सोने, रक्षा करने व सम्भोग करने के लिये नहीं हुआ।
फिर भी अक्सर देखा जाता है कि मनुष्य को भगवान के प्रति न के बराबर लगाव है। यह सत्य है कि हम गुण्वत्ता (quality) व संख्या (quantity) साथ-साथ नहीं पा सकते।
रावण को मारने के बाद व अपने 14 साल का बनवास पूर्ण होते ही भगवान श्रीरामचन्द्र जी पुष्पक विमान से माता सीता, हनुमान जी, सुग्रीव जी, लक्ष्मण जी, व अन्यों के साथ अयोध्या वापिस आये।
अयोध्या वासी, ब्रह्मा जी, व अन्य देवी-देवता उत्सव मना रहे थे व बेहद प्रसन्न थे।जब भगवान श्रीरामचन्द्र को यह पता चला कि उनके भाई श्रीभरत इतने वर्ष (जब तक भगवान अयोध्या से दूर रहे) केवल मात्र गोमूत्र में पके जौं खाते रहे, वृक्ष की छाल ओड़े रहे, जटायें बनाये रहे व भूमि शयन करते रहे तो उन्हें बहुत दुःख हुआ।
भगवान के अयोध्या पधारने पर, भरत जी अपने सिर पर भगवान की पादुका लेकर, नन्दीग्राम से चलते हुये उनके सामने आये। भरत जी के साथ अयोध्या के मन्त्रीगण, पुजारी व नागरिक थे। सभी प्रसन्नता से नाच-गा रहे थे।
भगवान के दर्शन होते ही भरत जी प्रसन्नता के आँसु लिये, उनके चरणों में जा गिरे।
ओह! कैसा अद्भुत आदर्श चरित्र भरत जी का।
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आज के समय में आधुनिक मानव के लिये ऐसा सोचना भी असम्भव है।
वर्तमान समय में अधिकारी जन अपनी कुर्सी बचाने के लिये कुछ भी करेंगे। जहाँ पर अपनी कुर्सी से मोह होगा, वहा सही संचालन कैसे होगा? हमें भगवान श्रीराम व भरत जी से सीखना चाहिये कि अधिकारी कैसा होना चाहिये?
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