मंगलवार, 22 जुलाई 2014

आठ प्रकार की महा-द्वादशी


एकादशी व्रत के प्रसंग में अष्ट द्वादशी व्रत कथा को विशेष भाव से जानना चाहिये।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्रीसूत गोस्वामी तथा श्रीशौनक ॠषि की बातचीत से पता चलता है कि उन्मीलनी, व्यंजुली, त्रीस्पर्शा, पक्षवर्द्धिनी, जया, विजया, जयन्ती और पापनाशिनी - यह अष्ट प्रकार की महाद्वादशी तिथियाँ महापुण्य स्वरूपिणी व सर्वपापहरिणी हैं। 


इनमें से पहली चार तिथी के अनुसार व बाद की चार नक्षत्र के अनुसार मनायी जाती हैं। 

जैसे -

1) उन्मीलनी - अगर एकादशी सम्पूर्ण है (एकादशी एक अरुणोदय से लेकर अगले दिन अरुणोदय में हो तो सम्पूर्ण  कहलाती है) और अगले दिन द्वादशी में वृद्धि प्राप्त करे, किन्तु द्वादशी वृद्धि न पाय तब वह द्वादशी - उन्मीलनी द्वादशी कहलाती है।

2) व्यंजुली - एकादशी वृद्धि न पाय, परन्तु द्वादशी वृद्धि पाय, तब यह व्यंजुली महाद्वादशी कहलाती है। यह महाद्वादशी सम्पूर्ण पापों का नाश कर देती है।

3) त्रिस्पर्शा - अरुणोदय में एकादशी हो, फिर सारे दिन-रात द्वादशी रहे व अगले दिन प्रातः त्रयोदशी हो, तब यह त्रिस्पर्शा द्वादशी कहलाती है। यह द्वादशी भगवान श्रीहरि को अत्यन्त प्रिय है। (एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी - तीनों एक ही तिथि में आने से त्रिस्पर्शा होती है) 
4) पक्षवर्द्धिनी - अगर अमावस्या या पूर्णिमा में दो सूर्योदय आ जायें, तो एकादशी के दिन उपवास न करके, द्वादशी के दिन उपवास होता है । उसे पक्षवर्द्धिनी महाद्वादशी कहते हैं।

ये चार महाद्वादशी तिथियां हैं, तिथि योग से।

अब चार नक्षत्र योग से -

5) जया - शुक्ल पक्ष की द्वादशी में यदि पुनर्वसु नक्षत्र का योग हो तो, वह जया महाद्वादशी कहलाती है। इस तिथि को सभी तिथियों से श्रेष्ठ कहा जाता है।


6) विजया - शुक्ल पक्ष की द्वादशी में यदि श्रवणा नक्षत्र का योग हो तो वह महापुण्यवान विजया महाद्वादशी कहलाती है। भगवान श्रीवामन का आविर्भाव इसी श्रवणा नक्षत्र में हुआ था, अतः इस नक्षत्र की बहुत महिमा है।

7) जयन्ती - शुक्ल पक्ष की द्वादशी में यदि रोहिणी नक्षत्र का योग हो तो वह सर्व पाप हरणे वाली, सर्व पुण्य देने वाली, जयन्ती महाद्वादशी कहलाती है। चूंकि रोहिणी नक्षत्र में भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए थे, अतः इस महाद्वादशी की भी बहुत महिमा है ।

8) पापनाशिनी - शुक्ल पक्ष की द्वादशी में यदि पुष्या नक्षत्र का योग हो तो वह महा-पुण्य स्वरूपिणी पापनाशिनी महाद्वादशी कहलाती है।  इस महाद्वादशी को उपवास करने से एकादशी व्रत से भी सहस्र गुणा ज्यादा फल लाभ होता है।


यह ठीक है कि शास्त्रों में इन सब व्रतों के बहुत प्रकार के फल बताये गये हैं। किन्तु शुद्ध भक्तगण अपनी इन्द्रियों की इच्छापूर्ति की इच्छा न करके, श्रीकृष्ण की प्रसन्नता व श्रीकृष्ण की इच्छा को पूरा करने के लिये, व शुद्ध भक्ति के प्रेम-फल की प्राप्ति के लिये ये व्रत करेंगे। 

इन अष्ट द्वादशी व्रत के उपस्थित होने पर शुद्ध भक्तगण एकादशी उपवास न कर, इन सब महाद्वादशी व्रत का ही पालन करेंगे।

महाद्वादशी का व्रत करने से ही एकादशी का सही व्रत होता है व श्रीहरि की प्रसन्नता होती है।

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