व्रत का अर्थ
होता है
संकल्प ।
वैष्णव तन्त्र नामक
ग्रन्थ में
शरणागति के
जो लक्षण
दिये हैं,
उसमें पहला
ही लक्षण
है - 'आनुकूलस्य
संकल्पः' अर्थात्
जिन जिन
क्रियायों से भक्त और भगवान
प्रसन्न होते
हैं, उन
सभी कार्यों
को करने
का संकल्प
लेना।

उप् + वास = उप्
का अर्थ
होता है
नज़दीक, तथा
वास का
अर्थ होता
है रहना।
तो व्रत का
एक और
अर्थ हुआ,
भगवान के
अधिक से
अधिक नज़दीक
रहना। यानि
की व्रत
के दिन
अधिक से
अधिक समय
भगवान के
भक्तों के
साथ, भगवान
की चर्चा
सुनते हुए,
बोलते हुए,
अथवा
स्मरण
करते हुए,
व्यतीत करना
चाहिये। इसलिए
भक्त लोग,
एकादशी आदि
व्रत के
दिन, तुलसी
की माला
पर अधिक
हरे कृष्ण
महामन्त्र का जाप करते हैं,
व भक्तों
के साथ
अधिक समय
तक संकीर्तन
करते हैं। केवल मात्र भूखा रहना व्रत का तात्पर्य नहीं है। व्रत का मुख्य तात्पर्य अपने आप को भगवान से जोड़ना है। हमारे शास्त्रों में एकादशी आदि व्रत में अनुक्ल्प की व्यवस्था दी गयी है। अनुक्ल्प का अर्थ होता है विकल्प । यानि कि व्रत में दाल, चावाल, रोटी इत्यादि नहीं खाते हैं । फिर यदि भूख लगे तो उसका विकल्प ( alternate) क्या है?
उसका विकल्प है
कि हम
फल, दूध,
दही, पानी
, इत्यादि ले सकते हैं। बिमार
होने पर
दवाई भी
ले सकते
हैं। कहने
का अर्थ
केवल मात्र
भूखे रहने
से ही
भगवान का
भजन नहीं
होता है,
भगवान को
प्रसन्न करने
की चेष्टाओं
को करने
से ही
भजन होता
है। 
अन्त में हम
इतना अवश्य
कहना चाहेंगे
की इस
युग में
शुद्ध भक्तों
के साथ
हरे कृष्ण
महामन्त्र का संकीर्तन करने से
तथा विभिन्न
प्रकार के
व्रतों में
अपने मन
को ना
उलझा कर,
पूरी निष्ठा
के साथ
एकादशी का व्रत करने से,
तथा भगवान
के प्रेमी
भक्तों की
सेवा करने
से भगवान
जितना प्रसन्न
होते हैं,
और क्रियाओं
से उतना
प्रसन्न नहीं
होते। अतः
शुद्ध भक्तों
के साथ
हरे कृष्ण
महामन्त्र का संकीर्तन करना, एकादशी
व्रत करना,
तथा भगवान के उच्च कोटी
के भक्तों
की सेवा
करना ही
सर्वोत्तम हरि भजन है।
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