गुरुवार, 27 मार्च 2014

एकादशी व्रत के पालन में अन्तर…

महान वैष्णव आचार्य श्रील रूप गोस्वामी जी ने भक्ति के 64 प्रकार के अंगों की व्याख्या करते हुये, सबसे पहला भक्ति का अंग बताया -- गुरु पदाश्रय -- अर्थात् सद्-गुरु के चरणों में निष्कपट भाव से आश्रय लेना, क्योंकि जो सद्-गुरु होते हैं, वे श्रौत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ व भगवान श्रीहरि के प्रियजन होते हैं। उनके चरणों का आश्रय लिये बिना श्रीहरि की आराधना सम्भव नहीं है। 

जब कोई व्यक्ति अपने सद्-गुरु के श्रीचरणों में निष्कपट भाव से शरण
ग्रहण करता है तो उसमें सद्-गुरु की कृपा-शक्ति का संचार होता है। इसी कृपा शक्ति के संचार के प्रभाव से सद्-गुरु, जीव के दुनियावी अंहकार को हटाकर, उसमें उसके शुद्ध चिन्मय स्वरूप का प्राकट्य करवाते हैं। जीव के चिन्मय स्वरूप के प्रकट होने के साथ ही साथ उसकी दिव्य इन्द्रियाँ भी प्रकाशित हो जाती हैं।

तब उस अवस्था में जीव अपनी सेवोन्मुख दिव्य-चिन्मय इन्द्रियों के द्वारा भगवान की सेवा करने की योग्यता प्राप्त करता है। ऐसी स्थिति में जीव अपनी चिन्मय व सेवोन्मुख इन्द्रियों के द्वारा अपने चिन्मय स्वरूप में भगवान के नज्दीक रह सकता है अर्थात् उपवास कर सकता है।


इसके अलावा जीवों के बन्धन व मुक्ति का कारण मन है। अतः मन के चिन्तन को यदि हम भगवान के उन्मुख न कर पायें तो भगवान के नज़दीक वास सम्भव ही नहीं है। यही कारण है कि भोगों की और दौड़ रहे मन को सेवोन्मुख करने के लिए शुद्ध-भक्तों की संगति बहुत जरूरी है ।
भक्तों के आनुगत्य के बिना, किसी भी अन्य प्रकार से, चाहे वह कोई भी अनुष्ठान हो, भगवान के नज़दीक रहने की योग्यता प्राप्त नहीं होती। इसी कारण कर्मियों के एकादशी-व्रत पालन करने में और भक्तों के एकादशी-व्रत का पालन करने में ज़मीन - आसमान का अन्तर होता है। 

भगवद्-अनुभूति प्राप्त महापुरुष की कृपा के बिना हमारी कोई भी क्रिया भक्ति नहीं कहलाती -- ये उपदेश श्रीचैतन्य चरितामृत व श्रीमद् भागवत आदि ग्रन्थों में लिखा है। ग्रन्थों में तो यहाँ तक लिखा है कि अपनी चेष्टा से श्रीकृष्ण भक्ति की तो बात बहुत दूर है, संसार के चौरासी के चक्र से भी महत्-पुरुष की कृपा के बगैर छुटकारा नहीं मिल सकता।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें