शुक्रवार, 21 मार्च 2014

कैसे समझें गीता को?

श्रीमद् भगवद् गीता में अनेक प्रकार की योग पद्धतियाँ बताई गई हैं -- भक्ति योग, कर्म योग, ज्ञान योग , हठ योग। 

योग शब्द का अर्थ होता है 'जोड़ना'। इसका अर्थ है की कैसे हम अपने को ईश्वर से जोड़ें ।

यह ईश्वर से पुनः जुड़ने या सम्बन्ध बनाने का साधन है। 

कालक्रम से श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया यह योग लुप्त हो गया था । ऐसा क्यों हुआ?


क्या जिस समय श्रीकृष्ण अर्जुन से श्रीगीता कह रहे थे उस समय विद्वान साधु नहीं थे? क्यों नहीं थे। उस समय अनेक साधु-संत थे। क्या उस समय विद्वान नहीं थे? विद्वान भी थे।

तो फिर यह ज्ञान लुप्त कैसे हो गया? भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन ऐसा क्यों कहते हैं की यह ज्ञान लुप्तप्राय हो गया है ?



'लुप्त' का अर्थ है कि भगवद्-गीता का तात्पर्य (सार) लुप्त हो गया था। 



भले ही विद्वान-वृन्द अपनी - अपनी मान्यताओं के अनुसार गीता की व्याख्या प्रस्तुत करें, किन्तु यह व्याख्या भगवद गीता नहीं हो सकती।

श्रीकृष्ण इसी बात को बल दे रहे हैं। कोई व्यक्ति दुनियावी दृष्टि से अच्छा विद्वान हो सकता है, किन्तु इतने से वह भगवद् गीता पर टीका लिखने का अधिकारी नहीं बन सकता। 

श्रीमद् भगवद् गीता को समझने के लिए हमें शिष्य-परम्परा को मानना होगा। हमें भगवद् गीता की आत्मा में प्रविष्ट करना है, न की पाण्डित्य की दृष्टि से इसे देखना है।

श्रीकृष्ण ने सारे लोगों में से इस ज्ञान के लिए अर्जुन को ही सुपात्र क्यों समझा? अर्जुन न तो कोई विद्वान था, न योगी और न ही ध्यानी । वह तो युद्ध में लड़ने के लिये सन्नद्ध शूरवीर था। उस समय अनेक महान ॠषि जीवित थे और श्रीकृष्ण चाहते तो उन्हें भगवद् गीता का ज्ञान प्रदान कर सकते थे।

इसका उत्तर यही है कि सामान्य व्यक्ति होते हुए भी अर्जुन की सबसे बड़ी विशेषता थी -- भक्तोऽसि मे सखा चेति -- 'तुम मेरे भक्त तथा सखा हि।' 

यह अर्जुन की अतिरिक्त विशेषता थी जो बड़े से बड़े साधु में नहीं थी। 
अर्जुन को ज्ञात था कि कृष्ण श्रीभगवान हैं, अतः उन्होंने उन्हें अपना गुरु मानकर अपने आपको समर्पित कर दिया। 

भगवान श्रीकृष्ण का भक्त बने बिना कोई व्यक्ति भगवद् गीता को नहीं समझ सकता। उसे श्रीगीता में ही संस्तुत विधि से समझना होगा, जिस प्रकार अर्जुन ने समझा था। यदि हमे इसे भिन्न प्रकार से समझना चाहते हैं या इसकी भिन्न व्याख्या करना चाहते हैं तो वह हमारे पाण्डित्य का प्रदर्शन हो सकती है, भगवद् गीता नहीं। -- श्रील ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज जी (संस्थापक - इस्कान)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें