मात्र 11 वर्ष की आयु में आपको श्रीमद् भगवद् गीता कण्ठस्थ हो गयी थी। आप गुरु-वैष्णव-भगवान की सेवायों के लिये हर समय इतना उत्साहित रहते थे कि जब किसी सेवा-कार्य में सभी की चेष्टायें समाप्त हो जाती थीं तो, आप अपने ऊपर कार्य का भार लेकर बड़ी दीनता के साथ कहा करते थे कि अभी तो चेष्टा प्रारम्भ ही नहीं हुई। इस तरह कई असम्भव से लगने वाली सेवाओं को आपने अपने गुरु की प्रसन्नता के लिये कर दिखाया।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी को आप पर यह विश्वास था कि आप को वे जिस सेवा-कार्य के लिये भेजेंगे, आप उसे सुन्दर ढंग से पूरा करके ही लौटेंगे। इसलिये भारत में प्रचार के उपरान्त, विदेश में प्रचार कार्य के लिये श्रील प्रभुपाद जी ने प्रथम आपका ही पासपोर्ट बनवाया था। आपके दिन-रात के अनथक परिश्रम, आलस्य रहित महा-उद्यम-युक्त सेवा-प्रचेष्टा को देखकर श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद जी कहा करते थे कि आपमें अद्भुत 'volcanic energy' है।
पूर्वाश्रम में जब आप उच्च विद्या के लिये कोलकाता में रह रहे थे तब आप भगवान् को पुकारते हुए, रोते थे। एक दिन आपने एक अपूर्व स्वप्न देखा कि श्रीनारद ॠषि जी ने आकर आपको सांत्वना दी तथा मन्त्र प्रदान किया और कहा कि इस मन्त्र के जप से तुम्हें सबसे प्रिय वस्तु की प्राप्ति होगी। परन्तु स्वप्न टूट जाने के पश्चात् बहुत चेष्टा करने पर भी वह सारा मन्त्र आपको याद नहीं हो पाया। मन्त्र भूल जाने पर आपके मन और बुद्धि में अत्यन्त क्षोभ हुआ और दु:ख के कारण आप मोहित हो गए। सांसारिक वस्तुओं से उदासीनता चरम सीमा पर पहुँच गई और आपने संसार को त्याग देने का संकल्प लिया। आप ने अपने माताजी का आशीर्वाद ले, आज्ञा प्राप्त की व भगवान के दर्शनों की तीव्र इच्छा को लेकर व संसार को त्याग कर आपने हिमालय की ओर प्रस्थान कर दिया। वहाँ अकेले ही बिना किसी सहायता के जंगलों से घिरे हुए निर्जन पहाड़ पर तीन दिन और तीन रात भोजन व निद्रा त्याग कर आप एकाग्रचित होकर, अत्यन्त व्याकुलता के साथ मत्त होकर भगवान को पुकारने रहे। भगवान के दर्शनों की तीव्र इच्छा होने के कारण आपका बाह्य ज्ञान जैसे लुप्त प्रायः हो गया था उसी समय आकाशवाणी हुई, आप जहाँ पहले रहते थे वहाँ आपके होने वाले श्रीगुरुदेव का आविर्भाव हो चुका है, इसलिए आप अपने स्थान को वापस लौट जाओ। देव-वाणी के आदेश को शिरोधार्य करके आप हिमालय से वापिस लौट आये । इसी के बाद आपको श्रीधाम मायापुर में श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ग़ोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद के दर्शन हुये।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी को आप पर यह विश्वास था कि आप को वे जिस सेवा-कार्य के लिये भेजेंगे, आप उसे सुन्दर ढंग से पूरा करके ही लौटेंगे। इसलिये भारत में प्रचार के उपरान्त, विदेश में प्रचार कार्य के लिये श्रील प्रभुपाद जी ने प्रथम आपका ही पासपोर्ट बनवाया था। आपके दिन-रात के अनथक परिश्रम, आलस्य रहित महा-उद्यम-युक्त सेवा-प्रचेष्टा को देखकर श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद जी कहा करते थे कि आपमें अद्भुत 'volcanic energy' है।
पूर्वाश्रम में जब आप उच्च विद्या के लिये कोलकाता में रह रहे थे तब आप भगवान् को पुकारते हुए, रोते थे। एक दिन आपने एक अपूर्व स्वप्न देखा कि श्रीनारद ॠषि जी ने आकर आपको सांत्वना दी तथा मन्त्र प्रदान किया और कहा कि इस मन्त्र के जप से तुम्हें सबसे प्रिय वस्तु की प्राप्ति होगी। परन्तु स्वप्न टूट जाने के पश्चात् बहुत चेष्टा करने पर भी वह सारा मन्त्र आपको याद नहीं हो पाया। मन्त्र भूल जाने पर आपके मन और बुद्धि में अत्यन्त क्षोभ हुआ और दु:ख के कारण आप मोहित हो गए। सांसारिक वस्तुओं से उदासीनता चरम सीमा पर पहुँच गई और आपने संसार को त्याग देने का संकल्प लिया। आप ने अपने माताजी का आशीर्वाद ले, आज्ञा प्राप्त की व भगवान के दर्शनों की तीव्र इच्छा को लेकर व संसार को त्याग कर आपने हिमालय की ओर प्रस्थान कर दिया। वहाँ अकेले ही बिना किसी सहायता के जंगलों से घिरे हुए निर्जन पहाड़ पर तीन दिन और तीन रात भोजन व निद्रा त्याग कर आप एकाग्रचित होकर, अत्यन्त व्याकुलता के साथ मत्त होकर भगवान को पुकारने रहे। भगवान के दर्शनों की तीव्र इच्छा होने के कारण आपका बाह्य ज्ञान जैसे लुप्त प्रायः हो गया था उसी समय आकाशवाणी हुई, आप जहाँ पहले रहते थे वहाँ आपके होने वाले श्रीगुरुदेव का आविर्भाव हो चुका है, इसलिए आप अपने स्थान को वापस लौट जाओ। देव-वाणी के आदेश को शिरोधार्य करके आप हिमालय से वापिस लौट आये । इसी के बाद आपको श्रीधाम मायापुर में श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ग़ोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद के दर्शन हुये।
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