श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में बताया कि मनुष्य जन्म क्यों मिला है और हमें कहाँ तक जाना है।
श्रीमहाप्रभु जी कहते हैं -- आराध्यो भगवान्………अर्थात् भगवान आपके आराध्य होने चाहिएं।
सभी देवी-देवताओं का सम्मान करें, लेकिन जो मंत्र जप है, जो पूजा है, सेवा है, आरती है, प्रसाद खाना है………ये सब भगवान का होना चाहिए।
भगवान में भी बहुत सारे अवतार हैं?
इसके उत्तर में बताते हैं -- वृजेश तनय……अर्थात् हमारे आराध्य हैं, वृज के ईश यानीकि श्रीनन्द महाराज जी के पुत्र (तनय) श्रीकृष्ण।
कहाँ पर रहते हैं?
वे तो श्रीधाम वृन्दावन में ही रहते हैं।
कोई कह सकता है कि श्रीकृष्ण तो मथुरा में भी रहे, द्वारिका में भी रहे……उसके उत्तर में कहते हैं कि नन्दनन्दन भगवान श्रीकृष्ण जी ने जो वृन्दावन में लीला की, हमें तो वही चाहिए।
उनकी सेवा-पूजा कैसे करनी है?
उसके उत्तर में बताते हैं -- वृज की गोपियों ने जिस तरह से भगवान की सेवा की, उस स्थिती तक हमने पहुँचना है।
यह अलग बात है कि हम कहाँ तक पहुँच पाते हैं किन्तु श्रीमहाप्रभु जी ने मनुष्य जन्म का लक्ष्य बता दिया।
वैसे भगवान की सेवा में शान्त रस होता है, उसके ऊपर दास्य रस, फिर उसके ऊपर सख्य रस, फिर वात्सल्य रस (श्रीनन्द महाराज जी, श्रीमती यशोदा जी आदि), फिर मधुर रस (स्वकीय भाव - श्रीमती सीता जी, श्रीमती लक्ष्मी जी, श्रीमती रुक्मिणी जी आदि) और फिर पारकीय भाव।
यह पारकीय भाव गोपियों का है। वहाँ तक हमें पहुँचना है।