श्रील वासुदेव घोष जी, भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के प्रिय पार्षद थे। आप प्रसिद्ध सुकण्ठ कीर्तनीया थे।
श्रीगोविन्द घोष व श्रीमाधव घोष आपके भाई थे।
जब श्रीनित्यानन्द प्रभुजी, गौड़ देश में श्रीकृष्ण नाम प्रचार के लिये आये तो श्रील वासुदेव घोष भी उनके साथ आये थे।
श्रीगोविन्द, श्रीमाधव व श्रीवासुदेव -- इन सब के कृष्ण-कीर्तन में श्रीमहाप्रभु व श्रीनित्यानन्द जी नृत्य करते है।
श्रील वासुदेव घोष जी ने श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की महिमा में कई भजन लिखे। उनमें से एक कुछ ऐसे है --
(यदि) गौर ना हइत, तबे कि हइत, केमने धरिनाम दे'।
राधार महिमा प्रेमरस सीमा, जगते जानात के?॥
मधुर वृन्दाविपिन माधुरी, प्रवेश चातुरी सार।
वरज युवती, भावेर भकति, शकति हइत का'र?॥
गाओ गाओ पुनः, गौरांगेर गुण, सरल करिया मन।
ए भव सागरे, एमन दयाल, ना देखिये एकजन॥
(आमि) गौरांग बलिया, ना गेनु गलिया, केमने धरिनु दे'।
वासुर-हिया, पाषाण दिया, (विधि) केमने गड़ियाछे॥
अर्थात्
यदि श्रीगौरांग महाप्रभुजी न होते तब क्या होता? मैं किस प्रकार से इस शरीर को रख पाता? राधाजी की महिमा व उन्नत उज्जवल रस की बात जगत् को कौन बताता?
मधुर वृन्दावन की जो माधुरी है, उसमें प्रवेश पाने का चातुर्य ही सार है तथा वृज-गोपियों की जो परकीया भाव की भक्ति है, किसकी शक्ति थी जो वहाँ तक पहुँच पाता?
इसलिये बार-बार श्रीगौरांग महाप्रभुजी के गुणों का सरल मन से, निष्कपट मन से कीर्तन करो। इस भवसागर में इस प्रकार का दयालु और कोई नहीं दिखाई देता।
श्रीवासुदेव घोषजी दीनता से अपने बारे में कहते हैं कि मैंने भी न जाने कैसे इस शरीर को धारण किया हुआ है? कारण श्रीगौरांग नाम करने के बावज़ूद भी चित्त द्रवित नहीं हो रहा है। मुझे लगता है कि विधि ने शायद मेरे इस हृदय को पाषाण से निर्मित किया है।
श्रीगोविन्द घोष व श्रीमाधव घोष आपके भाई थे।
जब श्रीनित्यानन्द प्रभुजी, गौड़ देश में श्रीकृष्ण नाम प्रचार के लिये आये तो श्रील वासुदेव घोष भी उनके साथ आये थे।
श्रीगोविन्द, श्रीमाधव व श्रीवासुदेव -- इन सब के कृष्ण-कीर्तन में श्रीमहाप्रभु व श्रीनित्यानन्द जी नृत्य करते है।
श्रील वासुदेव घोष जी ने श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की महिमा में कई भजन लिखे। उनमें से एक कुछ ऐसे है --
(यदि) गौर ना हइत, तबे कि हइत, केमने धरिनाम दे'।
राधार महिमा प्रेमरस सीमा, जगते जानात के?॥
मधुर वृन्दाविपिन माधुरी, प्रवेश चातुरी सार।
वरज युवती, भावेर भकति, शकति हइत का'र?॥
गाओ गाओ पुनः, गौरांगेर गुण, सरल करिया मन।
ए भव सागरे, एमन दयाल, ना देखिये एकजन॥
(आमि) गौरांग बलिया, ना गेनु गलिया, केमने धरिनु दे'।
वासुर-हिया, पाषाण दिया, (विधि) केमने गड़ियाछे॥
अर्थात्
यदि श्रीगौरांग महाप्रभुजी न होते तब क्या होता? मैं किस प्रकार से इस शरीर को रख पाता? राधाजी की महिमा व उन्नत उज्जवल रस की बात जगत् को कौन बताता?
मधुर वृन्दावन की जो माधुरी है, उसमें प्रवेश पाने का चातुर्य ही सार है तथा वृज-गोपियों की जो परकीया भाव की भक्ति है, किसकी शक्ति थी जो वहाँ तक पहुँच पाता?
इसलिये बार-बार श्रीगौरांग महाप्रभुजी के गुणों का सरल मन से, निष्कपट मन से कीर्तन करो। इस भवसागर में इस प्रकार का दयालु और कोई नहीं दिखाई देता।
श्रीवासुदेव घोषजी दीनता से अपने बारे में कहते हैं कि मैंने भी न जाने कैसे इस शरीर को धारण किया हुआ है? कारण श्रीगौरांग नाम करने के बावज़ूद भी चित्त द्रवित नहीं हो रहा है। मुझे लगता है कि विधि ने शायद मेरे इस हृदय को पाषाण से निर्मित किया है।
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